Share This Post

Featured News / Featured Slider / ज्ञान वाणी

कठिन से कठिन साधना भी यदि बलवान मन हो तो अत्यंत सरल हो ही जाती है: डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा.

कठिन से कठिन साधना भी यदि बलवान मन हो तो अत्यंत सरल हो ही जाती है: डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा.

     स्थल: श्री राजेन्द्र भवन चेन्नई

 विश्व ज्ञानी, प्रभु श्रीमद् विजय राजेंद्र सुरीश्वरजी महाराज साहब के प्रशिष्यरत्न, राष्ट्र संत, सरलता के स्वामी, श्रीमद्विजय जयंतसेनसुरीश्वरजी म.सा.के कृपापात्र सुशिष्यरत्न श्रुतप्रभावक मुनिप्रवर श्री डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा. के प्रवचन के अंश

   🪔 *विषय : प्रभु वीर की वैभवीय भक्ति सर्वजीव की मुक्ति*🪔

~ कठिन से कठिन साधना भी यदि बलवान मन हो तो अत्यंत सरल हो ही जाती है।

~ प. पू. प्रभु श्री अभिधान राजेंद्र कोष रचयिता श्रीमद्विजय राजेंद्र सुरीश्वरजी महाराज के नाम से जो साधक अनुष्ठान, क्रिया जो भी अच्छा कार्य करता है उसमे ज्यादातर अंतरराय आते ही नहीं है।

~ ऐसा ही एक भव्य अनुष्ठान रविवार के दिन पूज्य मुनिराज डॉक्टर वैभवरत्न विजय जी महाराज साहब की निश्रा में संपन्न हुआ।

सिद्धितप, मासक्षमन, अट्ठाई आदि अनेक तपस्वियों की एक भव्य शोभा यात्रा का ऐतिहासिक सृजन हुआ जिसमें सभी तपस्वियों का पच्चक्खान का कार्यक्रम रखा गया और सभी तपस्वियों को शातापूर्वक पूज्य मुनिराज ने पच्चक्खान दिया।

~ पूरे चेन्नई नगर में कल के दिन एक ऐतिहासिक हर्ष और उल्लास का माहौल बना।

~ हमारी आत्मिकशक्ति का उत्थान ही धर्म का प्रारंभ है।

~ साधक प्रतिपल प्रभु आज्ञापालन से प्रतिपल सभी अंतरराय को दूर करता ही है।

~ इस विश्व में प्रभु के वचनों की भक्ति से ज्यादा मा मूल्यवान कुछ भी है ही नहीं।

~ श्रेष्ठ धर्म करने के बाद पापों की रुचि का नाश होना ही चाहिए।

~ प्रभु का भक्त निरंतर स्वयं के देशों का क्षय करता ही है।

~ तीर्थंकर प्रभु की करुणा जगत के सभी जीवो के हित के लिए निरंतर बरसती ही रहती है।

~ प्रभु की निरंतर, अलौकिक, अचिंत्य भक्ति के बल से जगत के सर्व जीवो में परमात्मा का ही दर्शन करता है।

~ जो साधक के हृदय में परमात्मा की आज्ञा पत्थर की लकीर की तरह दृढ़ होती है वह साधक प्रतिपल अनंत आनंद ज्ञान में ही रहता है।

~ जिसकी प्रभु के मिलन की ही परम प्यास है वह भक्त इस पृथ्वी का श्रेष्ठ जीव है।

~ जिस भव में जिस पल में आत्म शक्ति का विकास हुआ है उस भव साधक अनंत कर्मों की निर्जरा अवश्य करता ही है।

~ आत्म शक्ति के तुल्य कर्मों की शक्ति लेश मात्र भी है ही नहीं।

~ जिसे कर्मों का अक्षय करना ही है वह स्वयं की ज्ञान चेतना का ही बल प्रतिपल बढाता है।

~ धर्म क्रिया की महिमा, बहुमान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण आत्मा सम्मान की महिमा बहुमान है।

~ जागृत, बोधपूर्ण चेतना से ही कर्म का मूलभूत परिवर्तन, क्षय होता ही है।

~ जो भक्त को पूर्णबोध का, चेतना का विकास करना है वह प्रभु को ही श्रेष्ठ आलंबन में लेते हैं।

~ यदि हम कर्म के साथ जुड़ते ही नहीं तो कर्म हमें कभी दुख, दर्द, पीड़ा दे ही नहीं सकते।

~ संसार के सभी जीवो को सुख दुख मिल रहे हैं उसका मूल कारण स्वयं ही है।

~ प्रभु महावीर स्वामी को भी स्वयं की आत्मा में पूर्ण लीनता पाने के लिए अनंत काल चला गया तो हमें कितना समय लगेगा स्वयं को मिलने में?

~ पुण्य का कितना भी, कैसा भी उदय हो दोषदृष्टि, निंदा, क्रोध, मान नहीं ही होना चाहिए।

~ चेतन पल्लवित हो, ज्ञान, ध्यान प्राणवान हो वहीं साधक का लक्ष्य होना चाहिए।

~ कोई भी वचन में, स्थिति में, हमें कम से कम कर्मबंद हो वही निर्णय करना चाहिए।

~ अभिमान जीव को अंध बनता है, दूसरों को जाल में फसाना वह आत्म सम्मान का नाश है।

~ पर्युषण का श्रेष्ठ बोध यह है कि हमारा मन दोष रहित ज्ञान आदि गुणो से भरपूर और पवित्र होना ही चाहिए।

~ प्रभु वीर ने गौतम स्वामी (इंद्रभुति) के मन को समझा इतना ही नहीं समझा, शंका का क्षय किया, अहं का नाश किया, समर्पण श्रेष्ठ दिया, और मन को शांत, नाश कर दिया।

    *”जय जिनेंद्र-जय गुरुदेव”*

🏫 *श्री राजेन्द्रसुरीश्वरजी जैन ट्रस्ट, चेन्नई*🇳🇪

Share This Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Skip to toolbar