किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरीश्वरजी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने अध्यात्म कल्पद्रुम ग्रंथ के धर्मशुद्धि अधिकार का विवेचन करते हुए कहा हमने ही धर्म को अज्ञानता और मूर्खता के कारण मलिन, दोषपूर्ण बना रखा है। कई दोषों को करके इसको कलुषित कर दिया है। परमात्मा का बताया हुआ धर्म तो शुद्ध ही है। धर्म को मलिन करने के नौ दोष बताए गए हैं शैथिल्य यानी शिथिलता, मात्सर्य यानी ईर्ष्या, कदाग्रह, क्रोध, अनुताप यानी उत्तम कार्य करने के बाद पश्चाताप करना, अविधि, अभिमान, कुगुरु यानी कुसंगति और आत्मप्रशंसा। शैथिल्य का अर्थ है आलस्य नाम का दोष। हम भौतिक कार्यों में परिपूर्ण है लेकिन धार्मिक कार्यों में आलसी हैं। अपने पास हर शक्ति है, इसका उपयोग हमें सही ढंग से करना चाहिए। इसके लिए हमें हमारी अंतरात्मा की गवाही लेनी चाहिए। हमने 60% जिंदगी आलस्य में बर्बाद कर दी है। ऐसे लोग संयोग व संघर्ष होने पर धर्म करते हैं।
ज्ञानी कहते हैं एक क्षण का भी प्रमाद हमारी आराधना को खत्म करने में समर्थ है, इसलिए हमें शैथिल्य से दूर रहना चाहिए। जो व्यक्ति व्यस्त रहते हैं, वे आलसी नहीं बनते। मांगलिक सुनने से प्रवचन श्रवण के नए आयाम की शक्ति मिलती है। मंगलाचरण से कार्य सफल व निर्विघ्न होता है। यदि गुरु के प्रति अहोभाव, नम्रता होती है तो प्रवचन सुनने से आमूलचूल परिवर्तन मिलता है। मात्सर्य नाम का दोष हमारे सुकृत को नष्ट कर देता है। ज्ञानी कहते हैं पाप की सामग्री मिलने पर भी वे लोग पुण्य को सलामत रखते हैं, जो पाप के दुष्परिणाम को जानकर आलस्य से दूर रहते हैं। आपको जीवन में अर्जुन के साथ कृष्ण चाहिए या दुर्योधन की सेना चाहिए। ज्ञानी कहते हैं तेरे पास संख्या बल नहीं है तो चलेगा किंतु सत्व बल बनाए रखना अनिवार्य है। दुर्जन संख्याबल के आधार पर जीते हैं और सज्जन सत्वबल के आधार पर जीते हैं।
पुण्यबल नहीं होगा तो चलेगा, गुणबल होना चाहिए। सत्व के पीछे संख्याबल अपने आप आ जाएगा। औरों की जलन करेंगे तो अपना सत्व जल जाएगा। महापुरुषों की दृष्टि वर्तमान से परे होकर देखती है, इसलिए श्रद्धा, सत्व टिका रहता है। ऐसे समय में धर्म के मुहावरे याद आ जाए तो धर्म को बचाना सरल है। कर्म तो उदय में आएंगे ही, धर्मस्थान से थोड़ी राहत मिलती है। आपने धर्म सुना है लेकिन धर्म को पूरा जाना नहीं है। जीवन में सुधरने का प्रयास करें तो धर्म अंदर आएगा। लोगों के मन में अज्ञान भरा है, उससे सन्मार्ग भी उन्मार्ग बन जाता है। गुरु की नजर पापों से बचाती है। गुरुकुलवास मोक्ष का निवास है। गुरु की दृष्टि में ही शिष्य को रहना चाहिए। गुरु की नजर होगी तो माया- कपट का दोष नहीं लगता है। गुरु भले ही प्रवृत्ति न करे लेकिन उनको जागृत रहना पड़ता है। कोई भी कार्य में वर्तमान मत देखो, पूर्व की भूमिका को भी देखो।