नार्थ टाउन में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने कहा कि श्री उत्तराध्ययन सूत्र महावीर का अंतिम उपदेश है, ये सभी साधकों के जानने योग्य है जानकर आचरण करके पालन करने से ही लाभ मिलेगा। जो जीवन में धारण करते है तो ये ज्ञान सर्व कल्याणकारी और परिभ्रमण मिटाने वाला बन जाता है। यदि ये उपदेश मात्र सून कर भूल जाये हो कोई लाभ नही मिलेगा।
यदि जीव सुनकर किंचित मात्र भी पालन करेगा तो उसका कल्याण हो जायेगा। प्रमाद से जीव ज्ञान दर्शन, चारित्र, तप और पराक्रम से चूक जाता है भगवान कहते हैं
संयम लेना ही बड़ी बात नहीं है उसको स्वीकार करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। जैसे ज्ञानाचार बढ़ता है वैसे वैसे व्यक्ति के दोष मिट जाते है। जीव को अपने कर्त्तव्यों का भान होता है जिससे जीव में विवेक उत्पन्न होता है। जिससे आत्म शुद्धि में वृद्धि होती है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पांच आचार से ही सिद्धि प्राप्त होती है।
संयम पालन का ज्ञान होने पर गुरु के समक्ष रह कर दर्शन आदि सीखने पर प्रवृत्ति करना चारित्र है और फिर त्याग, प्रत्याख्यान कर विगय का त्याग कर तप आदि करना तपाचार है इनमें आचारण करने वाला ही श्रेष्ठ श्रमण होता है। आचार्य जयमल जी ने पहली बार जिनवाणी श्रवण करी और उसे अपने भीतर उतार लिया । ज्ञान से ही श्रद्धा, आस्था आती है। उनके मन मे जिनवाणी के प्रति इतनी श्रद्धा जागृत हुई कि उन्होंने नवविवाहित होते भी खड़े-2 विचलित न होते हुए ब्रहमचर्य के प्रत्याख्यान का संकल्प ले लिया और श्रद्धा और दृढ़ होती गई कि उन्होंने संयम अंगीकार करने का संकल्प ले लिया।
दीक्षा लेते ही बिना किसी की प्रेरणा के तप को आचरण में लेकर धारण करना शुरू कर दिया। इस प्रकार पांच आचार आचार्य जयमल जी में देखने को मिलते है। आज भी इस महान विभूति के कारण हम स्मरण में रखते है। उनके पुरुषार्थ की झलक आज भी दिखाई पड़ती है। धर्म को जागृत करने के लिए परिषह उपसर्ग सहन किये। उनके चारित्र को देख अन्य धर्मी भी प्रभावित हो गये। इनके यहाँ देवलोक के देव को भी पांचवे आरे में आचार्य जयमल के दर्शन हेतु आना पड़ा पांचवे आरे में। ऐसी साधना करने वाला इस संसार में दुर्लभ है। इसलिए पूज्य जयमलजी आज 300 साल बाद भी वन्दनीय है पूज्यनीय है। आत्मा पर लगे कर्म मल को धोने के लिए जो श्रम करे वही सच्चा श्रमण कहलाता है।