क्रमांक – 33
. *तत्त्व – दर्शन*
*🔹 तत्त्व वर्गीकरण या तत्त्व के प्रकार*
*👉जैन दर्शन में नवतत्त्व माने गये हैं – जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष।*
*🔅 पाप तत्त्व*
*उदय में आये हुये अशुभ कर्म पुद्गल को पाप कहते हैं। जैन सिद्धान्त दीपिका में कहा गया है- अशुभं कर्म पापम्। ज्ञानावरणादि अशुभ कर्मों को पाप कहा जाता है। उपचार से पाप के हेतु भी पाप कहलाते हैं, इससे पाप के अठारह भेद हो जाते हैं। जैसे- प्राण वध जिस पाप का हेतु होता है, उसे प्राणातिपात पाप कहते हैं। इसी प्रकार मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, पर परिवाद, रति-अरति, मायामृषा और मिथ्या दर्शन शल्य- ये अठारह पाप होते हैं।*
*पाप पुण्य का प्रतिपक्षी तत्त्व है। पाप का बंध मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग से होता है। पापाश्रव के ये मुख्य पांच • कारण हैं। इन सबमें मोह कर्म का उदय रहता है, अतः मोह कर्म के उदय से पाप लगता है। नये पाप का सृजन मोह कर्म के द्वारा ही होता है। चेतना में विकृति पैदा करने वाला मोह कर्म ही है।*
*जिस शुभ प्रवृत्ति के द्वारा शुभ कर्म (पुण्य) का बंधन होता है, उपचार से उसी को पुण्य कहा जाता है। इसी प्रकार जिस अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा अशुभ कर्म (पाप) का बंधन होता है, उपचार से उस अशुभ प्रवृत्ति को पाप कह दिया जाता है। पाप-बंध के अठारह स्थान हैं अर्थात् प्राणातिपात आदि अठारह कारण हैं। इनसे पाप का बंध होता है।*
*क्रमशः ………..*
*✒️ लिखने में कोई गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*
विकास जैन।