किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने प्रवचन में उत्तराध्ययन सूत्र की विवेचना करते हुए कहा महावीर भगवान ने निर्वाण समय निकट जानकर 48 घण्टों की अविरत देशना दी। इसका कारण है कि पांचवे आरे में जीव कहीं भटक न जाए, मोक्ष से वंचित न रह जाए। ज्ञानियों ने इस अंतिम देशना का पूरा सार उत्तराध्ययन सूत्र में वर्णित किया। उत्तर यानी प्रधान, श्रेष्ठ और अध्ययन यानी ग्रंथ।
इस ग्रंथ के अध्ययन से आध्यात्मिक व श्रेष्ठ जीवन जीने की कला मिलती है। उन्होंने कहा किसी व्यक्ति का परिचय जानने के लिए हम माता, पिता, गौत्र आदि की जानकारी लेते हैं लेकिन महापुरुषों का कहना है उस व्यक्ति की संगत किसके साथ है, वह किसकी बात सुनता है, यह जानने की कोशिश करो।
शास्त्रकारों ने महत्वपूर्ण बात बताई कि आत्महित का मार्ग प्रशस्त करना है तो उसके लिए जिनवाणी का श्रवण करना पड़ेगा। आज परिस्थिति बदली हुई है। कोई श्रवण करना नहीं चाहता। जितनी परमात्मा के दर्शन करने में रुचि है उतनी ही रुचि उनके सारगर्भित वचन को सुनने में होनी चाहिए।
आत्महित का मार्ग पाना है तो जिनवाणी का श्रवण, तत्वों व सत्य को परखने की जिज्ञासा होनी चाहिए। यह जिज्ञासा केवल वाचन तक सीमित नहीं होनी चाहिए। जिन शब्दों को आप सुनेंगे उनमें ऊर्जा, शक्ति व भाव होते हैं। चारित्रिक आत्माओं से श्रवण करने से एक विशिष्ट ऊर्जा का सर्जन होता है।
उन्होंने कहा उत्तराध्ययन सूत्र में 36 अध्याय है जिनमें पहला विनय है। विनय से ही साधना की शुरुआत होती है। हमारे आचरण में विनय अवश्य होना चाहिए जो कर्मों का नाश करता है। विनय का स्वरूप यानी सब प्रकार के संग से अन्तर से विप्रमुक्त होना।
यदि ममत्व, राग हमारे अन्दर पड़ा है तो वह सम्पूर्ण विनय नहीं है। उन्होंने कहा साधु- साध्वी निर्ग्रंथ होते हैं। यदि उनके जीवन में कोई राग, द्वेष, ममत्व की गांठ है तो संसार से छुटकारा नहीं पा सकते।
यदि दीक्षा के बाद में भी मां, बाप, भाई, बहन का राग अन्दर पड़ा है तो वह आत्मा का कल्याण नहीं कर पाएगा। जो राग, द्वेष, ममत्व का त्याग करे वही सच्चा साधु है। ऐसे साधु में ही विनय का प्रादुर्भाव होता है।
हृदय में राग, मोह, कषाय है तो विनय उनके जीवन में नहीं आ सकता। उन्होंने कहा उत्तराध्ययन के 36 अध्याय को सुनने व जीवन में उतारने का यह अमूल्य अवसर है। हमारे जीवन में भी निर्वाण की पूर्व भूमिका तैयार होनी चाहिए।