आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ के संघ भवन में धर्म प्रवचन देते हुए कहा कि मुनियों ने मानव मात्र के लिए चार प्रमुख पुरुषार्थ या उद्देश्य निर्धारित किए हैं, जिनमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष है। धर्म के लिए धन परमावश्यक है। उचित अभावों की पूर्ति के लिए धन जरूरी है। उसके द्वारा अहंकार तथा अनुचित कार्य नहीं किए जाने चाहिए। धन का उपार्जन केवल इसी दृष्टि से होना चाहिए कि उससे अपने व दूसरों के उचित अभावों की पूर्ति हो सके।
धन का महत्व प्रत्येक युग में छोटे-बड़े प्रत्येक व्यक्ति के लिए अवश्य रहा है। सच तो यह है कि धन के अभाव में व्यक्ति का किसी भी दशा में जीवित रह पाना संभव नहीं है। धन के सदुपयोग से रोटी, कपड़ा और मकान जैसी आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं। उन्होंने आगे कहा कि धन के माध्यम से ही व्यक्ति के सभी कार्य सिद्ध होते हैं, लेकिन ध्यान रहे कि पैसा हमें ऐसे कमाना चाहिए, जिसमें हमारा शारीरिक एवं मानसिक श्रम लगा हो, किसी दूसरे व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र हित का अहित न हो।
धन अनुशासित तरीके से व्यय होना चाहिए। हमें धन का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। अर्थात् धन उचित अभावों की पूर्ति के लिए है। उसके द्वारा अहंकार एवं अनुचित कार्य नहीं होने चाहिए। धन का उपयोग शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा के विकास के लिए होना चाहिए। धन से अपना, परिवार तथा अपने गांव व देश के विकास के लिए होना चाहिए। ज्ञातव्य हो कि धन का दुरुपयोग हमें अवनति की ओर ले जाता है। यदि सभी व्यक्ति धन का सदुपयोग करें तो देश एवं समाज की प्रगति हो सकती है।
देश और समाज उन्नति की ओर अग्रसर होगा। बिना अनुशासित व्यय हर प्रकार से दुखदाई होता है। हर तरह के प्रावधान से हम अपने धन का महत्व भी समझ सकेंगे और व्यय अपनी व्यवस्था व जरूरत के अनुसार होगा। जिस प्रकार एक पौधे को सींचकर हम वृक्ष बनाते हैं, और समय आने पर वह हमें छाया और फल देता है। ठीक उसी प्रकार हमें कमाने के साथ बचत करना आवश्यक है।