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ईर्ष्या : दूसरों को नहीं खुद को जलाती है : देवेंद्रसागरसूरि

ईर्ष्या : दूसरों को नहीं खुद को जलाती है : देवेंद्रसागरसूरि

Sagevaani.com /चेन्नई. श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने धर्म प्रवचन देते हुए कहा कि ईर्ष्या एक ऐसा शब्द है जो मानव के खुद के जीवन को तो तहस-नहस करता है औरों के जीवन में भी खलबली मचाता है। यदि आप किसी को सुख या खुशी नहीं दे सकते तो कम से कम दूसरों के सुख और खुशी देखकर जलिए मत।

यदि आपको खुश नहीं होना है न सही मत होइए खुश, किन्तु किसी की खुशियों को देखकर अपने आपको ईर्ष्या की आग में ना जलाएं। ईर्ष्यालु व्यक्ति की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह किसी की सुख-शांति नहीं देख सकता, उन्नति सहन नहीं कर सकता। वह अकारण ही उन्नतिशील व्यक्तियों की आलोचना करता, उन पर झूठे दोषारोपण करता और उनके कार्यों का अवमूल्यन करता दिखाई देता है।

ईर्ष्या का जन्म स्वयं अपनी उन कमजोरियों से होता है जो उन्नति-पथ में बाधक होती हैं। जब मनुष्य अपनी कमियों से असफलता का शिकार बनता है, तब उसमें पराजय की भावना आ जाती है, किंतु अपने अहंकार के कारण वह उनका हेतु अपने अंदर न देखकर दूसरों पर दोषारोपण किया करता है। ईर्ष्या कमजोर और हलकी मनोभूमि वालों को बड़ी जल्दी अपना शिकार बना लेती है। ऐसे लोगों में शक्ति-सामर्थ्य की, पुरुषार्थ की कमी रहती है, जिसके फलस्वरूप वे अपने जीवन में संतोषजनक कोई काम नहीं कर पाते और निरंतर अपने अंदर एक खालीपन अनुभव किया करते हैं। असंतोष ही वास्तव में ईर्ष्या का जन्मदाता है।

वे आगे बोले कि मनुष्य या तो कोई संतोषजनक कार्य कर सके अथवा अपनी स्थिति में संतुष्ट रहे, तो वह अवश्य ही ईर्ष्या की आग से बचा रह सकता है। निश्चय ही मनुष्य के अपने हाथ में हैं कि वह किसी के लिए अपने मन में ईर्ष्या रखता है अथवा सद्भावना। किसी की सफलता अथवा उन्नति में प्रसन्न होने से आपकी गांठ से कुछ भी तो नहीं जाता, उलटे दूसरों का स्नेह अथवा श्रद्धा-पात्र बनकर आपको लाभ-ही-लाभ होगा। अंत में आचार्य श्री ने कहा कि जब-जब आपके मन में किसी के लिए ईर्ष्या का भाव जागृत हो तब-तब अपने विचारों की दिशा को सकारात्मक सोच की और मोड़ दीजिए जब विचारों की दिशा ही बदल जाएगी तब अपने आप नकारात्मकता आपसे दूर होते जाएगी और जब मन में अच्छी बातें आती है तब हमें वो बातें सुकून ही देती है न की ग्लानि या जलन।

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