जोधपुर में चतुर्मासिक प्रवचन के दौरान श्री ऋषि मुनि जी ने कहा कि मन में किसी व्यक्ति या प्राणी के लिए जिस प्रकार का भाव पैदा होता है चाहे वह राग का हो या द्वेष का हो उसे आरंभ कहते हैं। जिसके चित् में तीव्रता से राग द्वेष पैदा होता है तब आपका कर्म कल्याणकारी कभी नहीं होगा। तमस काया, व्यक्ति को ज्ञान का अंधा बना देता है। तमस काया वाले व्यक्ति के सामने देवता भी खड़े हो जाएं तो वह उसे पहचान नहीं सकता।
थोड़ी में कहीं जाने वाली बात को व्यर्थ का लंबा ना करे। उपाध्याय प्रवर रविंद्र मुनि जी कहते हैं कि व्यक्ति को अपने भाव तो गागर में सागर के समान समझाना चाहिए। साधक को आवश्यकता से अधिक नहीं बोलना चाहिए। नपी तुली बात समझे हुए शब्दों में कहना चाहिए, उससे व्यक्ति का प्रभाव अधिक जमता है। सम्यक दृष्टि साधक को सत्य का अपलान नहीं करना चाहिए।
किसी भी प्राणी के साथ बैर-विरोध का भाव नहीं बढ़ाना चाहिए। जिन्होंने अहिंसा को अपना लिया, कर्म के सिद्धांत को जान लिया, कर्म मन वचन और काया से खुद को शुद्ध कर लिया। ऐसा व्यक्ति बैर विरोधी नहीं बनता। व्यक्ति को सब के साथ मैत्री भाव रखना चाहिए।
जिस साधक की अंतरात्मा भावना योग यानी निष्काम साधना से शुद्ध है वह जल में नौका के समान है अर्थात वह संसार रूपी सागर को पार कर जाता है। भावना योग कहता है कि साधना करो पर निष्काम करो। निष्काम साधना बहुत थोड़े लोगों में आता है और ऐसे लोग ही मोक्ष को पाते हैं।
जो नए कर्मों का बंधन नहीं मानते और निर्जरा करते हैं वही व्यक्ति मोक्ष पाते हैं। जो अंदर में राग द्वेष भाव नहीं करता उसे नए कर्म का बंध नहीं पड़ता। इसलिए राग द्वेष का जीवन में त्याग कर देना चाहिए। दुनिया में धर्म को प्राणी अलग-अलग तरह से ग्रहण करता है। लेकिन हमें अच्छे या पाठक भाव में धर्म को ग्रहण करना चाहिए इसे ही व्यक्ति का भला होता है।