जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा सुख और दुख मानसिक अवस्था के परिणाम होते हैं। इनकार में दुख होता है और स्वीकार में सुख की प्राप्ति होती है।
मनुष्य को यह चिंतन करना चाहिए दुखों को मैंने ही निमंत्रण दिया है तभी वह आए । दुख भोगना ही है तो फिर रोना क्यों? दुख सहना हीं है तो कहने की क्या जरूरत है ?सुख आए तो हंस लेना चाहिए और दुख आए तो हंसी में उड़ा देना चाहिए । धन कमाने ,पढ़ने, लिखने में कितना दुख सहते हैं पर खुशी – खुशी ।
वहां पर पता नहीं चलता क्योंकि वह स्वीकार है । बुखार आदि बीमारी के समय यदि स्वीकार कर लेते हैं तो शरीर गर्म होते हुए भी मन ठंडा रहता है।
मुनि ने एक दोहे के माध्यम से बात बताई दुख की गाड़ियों में अपने और पराए की पहचान हो जाती है।
दुख में कोई भी साथ नहीं देता। उस समय स्वयं के कपड़े भी वेरी बन जाते हैं। दुख और सुख के समय समभाव रखने वाला घावों पर मरहम पट्टी करने जैसा काम कर देता है।
मनुष्य की सुख प्राप्ति हेतु तीन धारणाएं चलती है – कभी ना कभी सुख मिलेगा, कहीं ना कहीं सुख मिलेगा और कोई ना कोई सुख देगा। इसीलिए वर्तमान को अपना, भूतकाल को सपना मानते हुए और भविष्य की कल्पना नहीं करनी चाहिए।
मनुष्य को किसी भी बात की चिंता नहीं करनी चाहिए। दुख के समय अपने से नीचे को देखने से दुख कम हो जाते हैं ।
जिस प्रकार एक विकलांग जिसके एक पैर नहीं है वह उस समय चिंतन करें कि दुनिया में तो अनेक ऐसे लोग हैं जिनके दो पैर नहीं है, किसी के हाथ नहीं है ।
मेरे तो आंखें भी है। ह ऐसे भाव से वह दुख को गले लगाते हुए अपनी मनःस्थिति को बदल देता है।