Sagevaani.com /साहूकारपेट, चेन्नई : सागर में लहरें निरंतर गतिशील रहती हैं। उसी प्रकार, व्यक्ति की इच्छाएँ भी निरंतर बढ़ती रहती हैं और वह उन्हीं इच्छाओं की पूर्ति में लगा रहता है। यही लोभ है। उपरोक्त विचार तेरापंथ सभा भवन, साहूकारपेट में धर्मसभा को संबोधित करते हुए मुनि हिमांशुकुमारजी कहे।
¤ जितनी अधिक इच्छाएँ, उतना ही अधिक तनाव
मुनिश्री ने आगे कहा कि लोभ के परिणामस्वरूप व्यक्ति का हृदय कमजोर रहता है। उसकी जठराग्नि और पाचन शक्ति कमजोर होती है। वह सदैव इस चिंता में रहता है कि पैसा आ गया तो उसे कहाँ रखें? धन के सुरक्षा की भी चिंता उसे सताती रहती है। किसी को दे दिया, तो वह पुन: आएगा या नहीं आएगा? उसकी भी चिंता उसे परेशान करती रहती है। लोभी व्यक्ति का हृदय क्रूर होता है। वह दूसरों का शोषण करता है और अन्याय भी करता रहता है। जिसके कारण वह दुर्गति को प्राप्त करता है। जितनी अधिक इच्छाएँ होती हैं, उतना ही अधिक तनाव होता है और वह उतने ही अधिक पाप कर्म का बंधन करता है।
लोभ मुक्ति के उपायों पर चर्चा करते हुए, मुनिश्री ने कहा कि इच्छाओं के अंत की सच्चाई को समझकर व्यक्ति लोभ पर नियंत्रण प्राप्त कर सकता है। इच्छाओं को नियंत्रित करके, व्यक्ति पाप कर्मों पर भी नियंत्रण प्राप्त कर सकता है। जो कुछ भी प्राप्त है, उसे पर्याप्त मानकर चलने से व्यक्ति सुखी रह सकता है।
¤ सच्ची शरणदाता अपनी आत्मा
लोभ से विमुक्त रहने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति संसार के सभी पदार्थों और संबंधों को अनित्य माने। साथ ही, उसे यह भी विश्वास रखना चाहिए कि कष्ट की घड़ी में, विपत्ति की स्थिति में कोई भी अन्य व्यक्ति या वस्तु उसे शरण नहीं दे सकती है। सच्ची शरणदाता उसकी अपनी आत्मा ही है।
मुनि श्री हेमन्तकुमारजी ने बोधि सम्पन्न बनने का आह्वान करते हुए विषय की विवेचना की।
समाचार संप्रेक्षक : स्वरूप चंद दाँती