चेन्नई. कोण्डितोप समता भवन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने प्रवचन के दौरान धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा, आहार ही जीवन का प्राण होता है। बिना आहार के व्यक्ति लंबे समय तक जीवित नहीं रह सकता। अत: जीने के लिए खाना जरूरी है पर खाने के लिए ही जीना नहींं चाहिए।
मनुष्य और पशु के जीवन में यही अंतर है कि पशु अपना सारा जीवन खाने-पीने और सोने में ही बिता देता है जबकि एक मनुष्य दिन-रात खाने-पीने में न बिताकर मर्यादित एवं सीमित आहार करता है। मर्यादित एवं सीमित आहार ही स्वास्थ्य के लिए हितकर होता है।
मनुष्य के आहार प्रक्रिया में विवेक जुड़ा रहता है। हर व्यक्ति को यह ध्यान रखना चाहिए कि उसे क्या खाना है। कितना खाना है। कब खाना है।
स्वाद ले ले कर भोजन करने से तीव्र पाप कर्मों का बंध होता है। जबकि बिना स्वाद लिए ग्रहण करने पर व्यक्ति खाते पीते हुए भी उपवासी बन सकता है। सात्विक भोजन करने वाले व्यक्ति की आरोग्यता भी बनी रहती है और विचारों में भी निर्मलता रहती है।
क्योंकि व्यक्ति जैसा और कहता है वैसे ही उसके विचार उत्पन्न होते हैं। कहावत भी है जैसा खावे अन्न वैसा होए मन। अत: व्यक्ति को अपने आहार में विवेक रखना चाहिए। आहार विचार और आचार की शुद्धि संभव हो सके। जयकलश मुनि ने गीतिका प्रस्तुत की।
मुनि के सानिध्य में जैन स्थानक में चल रहे सात दिवसीय बाल संस्कार शिविर के तीसरे दिन 125 बालक बालिकाओं ने हिस्सा लिया।