चेन्नई. वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन के प्रांगण में विराजित जयधुरंधर मुनि ने श्रावक के 12 व्रतों के शिविर के दौरान कहा इंसान से भूल होना स्वाभाविक है। यदि व्यक्ति अपनी भूलों को स्वीकार करते हुए दोषों का शुद्धिकरण कर लेता है, तो सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है।
आज के युग में सबसे बड़ी विडंबना यह है कि मनुष्य दूसरों के दोषों को तो देखता है किंतु स्वयं के दोषों को स्वीकार नहीं करता है। अपने दोषों को स्वीकार करने पर ही उनका शुद्धिकरण हो सकता है।
जिस प्रकार नाव में हुआ एक छोटा सा छेद यदि तुरंत बंद कर दिया जाता है तो नाव डूबती नहीं है, उसी प्रकार प्रायश्चित, प्रतिक्रमण द्वारा यदि समय पर व्रतों में दोष रूपी छिद्र से प्रबंध लगा दिया जाता है, तो साधक की नैया पार हो जाती है। व्रतों में अतिचार का सेवन हो जाए तो तुरंत उसका प्रतिक्रमण कर लेना चाहिए।
इस संदर्भ में व्रत में लगने वाले चार प्रकार के दोषों का वर्णन करते हुए मुनि ने समझाया कि अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार रूपी दोषों से श्रावक को बचना चाहिए। अतिक्रम अर्थात व्रत भंग करने की इच्छा होना, व्यतिक्रम का मतलब है उसके लिए साधन जुटाना, अतिचार यानी आंशिक रूप से व्रत का भंग होना और अनाचार में तो व्रत को पूर्णता भंग कर दिया जाता है।
अतिचार में द्रव्य से पूर्ण हिंसा तो नहीं होती, परंतु भाव हिंसा होने से व्रत में दोष लग जाते है। कानून की दृष्टि से भाव हिंसा चाहे अपराध न हो, किंतु जैन धर्म में इसे बंध का कारण बताया है।
श्रावक के प्रथम व्रत के पांच अतिचारों का विस्तार विवेचन करते हुए मुनि ने बताया कि किसी भी प्राणी को क्रोध के वशीभूत बंधन में नहीं बांधना चाहिए और न ही गहरा घाव डालना चाहिए। धर्म सभा का संचालन के.एल. जैन ने किया।