कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा आदमी के पास सम्यक दृष्टि नहीं है। वह हमेशा शिकायत करता है कि उसे कोई पूछता नहीं है। परमात्मा के समवशरण में रत्नों से पूजा होती है। देवता भक्ति में संलग्न रहते हैं। यहां मांगने से कुछ नहीं मिलता, वहां बिना मांगे सब कुछ है।
ये गिले तभी तक है जब तक हमारी दृष्टि सम्यक नहीं है। आदमी बड़ा अद्भुत है। अहंकार को छोडऩा नहीं चाहता और जीवन के आनंद को पाना चाहता है। कीचड़ से बाहर आना नहीं चाहता और शरीर को स्वच्छ रखना चाहता है। जीवन में दो मार्ग है जौहरी बनने के और पंसारी बनने के। पंसारी बनकर सब पसारा ही किया जा सकता है।
जौहरी बनने के लिए दृष्टि की जरूरत है, रत्नों को पहचानने की कला की जरूरत है। पुरुषार्थ करो लेकिन समर्पण की अंगुली पकड़ा दो। ज्ञान का आभूषण विनय है। विनय के पांच भेद हैं। लोक विन यानी अपने से बड़े का आदर करो। काम ंविनय यानी आदमी स्वार्थ पूरा करने के लिए किसी के भी सामने झुक जाता है।
अर्थ विनय अर्थात धन कमाने व भय के लिए झुक जाता है। आध्यात्मिक विनय यानी संतों की निंदा से दूर रहकर उनकी सेवा में रहना। जितना झुकोगे उतना ऊपर उठोगे। विनयी व्यक्ति सम्मान पाता है। विश्वास का पात्र बनता है। प्रिय बनता है। निर्वाण पाता है। खाली शास्त्रीय ज्ञान काम नहीं आता। विनय लोक व्यवहार काम आता है। परमात्मा कभी दूर नहीं गया। जो दूर चला जाए वह परमात्मा नहीं है। सदा तुम्हारे पास ही है जरा नम्र बनो कठोरता छोड़ो।