किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने साधना की त्रिपदी का विवेचन करते हुए कहा आत्म दोषों की आलोचना करना आत्मगर्हा है। शरणागति से मोह व कषायों का क्षय होगा, वहीं सुकृत की अनुमोदना करने से भवितव्यता का परिपाक होता है। हमारे मन में दुष्कृत भाव के लिए पश्चाताप होना चाहिए।
सुकृति की अनुमोदना करने के लिए गुण, दृष्टि व गुणानुराग होना आवश्यक है। हमारे अन्दर अनादि काल से दोष दृष्टि भरी पड़ी हैं। दूसरों के दोष तुरंत दिखाई देते हैं। सुकृत नहीं, केवल सकृत की अनुमोदना करने भर से ही पुण्य की पुष्टि होगी। भरत चक्रवर्ती तीर्थंकर आदिनाथ के पुत्र बने, उसके मूल में सुकृति की अनुमोदना है।
आज सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हम दूसरों के गुणों की अनुमोदना नहीं करते। आई एम समथिंग का अहंकार हमारे अन्दर विद्यमान है। गुणानुराग की कमी के कारण आपसी मनमुटाव और वादविवाद जन्म ले लेते हैं। इस कमी को दूर करने की अत्यंत आवश्यकता है। जैसे जैसे दूसरों के गुणों की अनुमोदना होगी पुण्य बढते जाएंगे, यहां तक कि तीर्थंकर नामकरण बंध तक ले जा सकता है।
हमें साधना की त्रिपदी को जीवन में उतारने की कोशिश करनी चाहिए। इसे मजबूत नहीं बनाएंगे तो यथार्थ फल की प्राप्ति नहीं होगी।
श्रमणोपासक का तात्पर्य है जिसके मन में श्रमण बनने की भावना है। उन्होंने कहा चारित्र धर्म की सेवा करने वाला श्रमणोपासक है। यदि ज्ञान नहीं है और आपके हृदय में क्षमा भाव है तो आप महाज्ञानी है। क्षमा भाव से शुभ भाव पैदा होता है। क्षमा है तो सदाचार है। क्षमाशील होने के कारण नीच कुल में जन्म लेकर भी सद्गति व कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है।
क्षमा संतोष, महापराक्रम, महादया, महाधर्म, महामुक्ति, जगतवन्दनीय और परम मंगल है। यह शूरवीर व महादानी का काम है। हमें एकाग्रता से इस बात को सोचना चाहिए।
क्षमा यानी क्रोध व कषाय रुपी अन्तर्शत्रुओं का निग्रह करना। दुर्गुण व दोषों को आत्मा से निकालने के लिए जिनवचन पर श्रद्धा होनी चाहिए।
हम छोटे जीवों की विराधना की चिंता तो करते हैं लेकिन क्रोध आने पर कितनी हिंसा होती है। हमें कर्कश वचन बोलकर किसी का हृदय नहीं दुखाना चाहिए, वहां क्षमा का उपयोग करना चाहिए। सर्व मंगल का मंगल जिनशासन है क्योंकि जिनशासन ने क्षमा का गहरा उपदेश दिया है। तीर्थंकरों ने इसका अनुसरण किया है। उन्होंने कहा पांच महाव्रत पालने व छः काय जीवों की रक्षा करने वाले साधु की आत्मा को वैमानिक देवलोक मिलता है।
किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने साधना की त्रिपदी का विवेचन करते हुए कहा आत्म दोषों की आलोचना करना आत्मगर्हा है। शरणागति से मोह व कषायों का क्षय होगा, वहीं सुकृत की अनुमोदना करने से भवितव्यता का परिपाक होता है। हमारे मन में दुष्कृत भाव के लिए पश्चाताप होना चाहिए। सुकृति की अनुमोदना करने के लिए गुण, दृष्टि व गुणानुराग होना आवश्यक है।
हमारे अन्दर अनादि काल से दोष दृष्टि भरी पड़ी हैं। दूसरों के दोष तुरंत दिखाई देते हैं। सुकृत नहीं, केवल सकृत की अनुमोदना करने भर से ही पुण्य की पुष्टि होगी। भरत चक्रवर्ती तीर्थंकर आदिनाथ के पुत्र बने, उसके मूल में सुकृति की अनुमोदना है।
आज सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हम दूसरों के गुणों की अनुमोदना नहीं करते। आई एम समथिंग का अहंकार हमारे अन्दर विद्यमान है।
गुणानुराग की कमी के कारण आपसी मनमुटाव और वादविवाद जन्म ले लेते हैं। इस कमी को दूर करने की अत्यंत आवश्यकता है। जैसे जैसे दूसरों के गुणों की अनुमोदना होगी पुण्य बढते जाएंगे, यहां तक कि तीर्थंकर नामकरण बंध तक ले जा सकता है। हमें साधना की त्रिपदी को जीवन में उतारने की कोशिश करनी चाहिए। इसे मजबूत नहीं बनाएंगे तो यथार्थ फल की प्राप्ति नहीं होगी।
श्रमणोपासक का तात्पर्य है जिसके मन में श्रमण बनने की भावना है। उन्होंने कहा चारित्र धर्म की सेवा करने वाला श्रमणोपासक है। यदि ज्ञान नहीं है और आपके हृदय में क्षमा भाव है तो आप महाज्ञानी है। क्षमा भाव से शुभ भाव पैदा होता है। क्षमा है तो सदाचार है।
क्षमाशील होने के कारण नीच कुल में जन्म लेकर भी सद्गति व कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। क्षमा संतोष, महापराक्रम, महादया, महाधर्म, महामुक्ति, जगतवन्दनीय और परम मंगल है। यह शूरवीर व महादानी का काम है। हमें एकाग्रता से इस बात को सोचना चाहिए।
क्षमा यानी क्रोध व कषाय रुपी अन्तर्शत्रुओं का निग्रह करना। दुर्गुण व दोषों को आत्मा से निकालने के लिए जिनवचन पर श्रद्धा होनी चाहिए। हम छोटे जीवों की विराधना की चिंता तो करते हैं लेकिन क्रोध आने पर कितनी हिंसा होती है।
हमें कर्कश वचन बोलकर किसी का हृदय नहीं दुखाना चाहिए, वहां क्षमा का उपयोग करना चाहिए। सर्व मंगल का मंगल जिनशासन है क्योंकि जिनशासन ने क्षमा का गहरा उपदेश दिया है। तीर्थंकरों ने इसका अनुसरण किया है। उन्होंने कहा पांच महाव्रत पालने व छः काय जीवों की रक्षा करने वाले साधु की आत्मा को वैमानिक देवलोक मिलता है।