संसार में सभी सुख चाहते है दुःख कोई नहीं चाहता। लेकिन सुख-दुःख का कर्ता कौन? भोगने वाला कौन? भगवान महावीर ने कहा कि आत्मा ही सुख-दुःख की कर्ता है, भोक्ता है। यह एक निश्चिय नय है। आत्मा ही सुख देती है व दुःख देती है। हमारी आत्मा ही हमारी मित्र एवं शत्रु है। उपरोक्त उद्गार अणुव्रत अनुशास्ता शांतिदूत आचार्य श्री महाश्रमण जी ने धर्मसभा में व्यक्त किए।
श्रद्धालुओं को संबोधि द्वारा अमृत देशना देते हुए गुरुदेव ने आगे कहा- सामान्य आदमी को सारे सुख मिलना कठिन है। उनके अनुकूलता होते हुए भी प्रतिकूलता आ जाती है। आत्मकर्त्तृत्ववाद का सिद्धांत है। जैसा आदमी कर्म करता है वैसा ही उसे भोगना पड़ता है। सुख-दुःख हमारे स्वयं के हाथ में है। महात्मा महाप्रज्ञ का पाठ करते हुए महातपस्वी महाश्रमण जी ने आचार्य महाप्रज्ञ के बाल्यकाल के प्रसंगों की व्याख्या की।
कार्यक्रम में श्री गौतम डागा ने जैन विश्व भारती, लाडनूं के समण संस्कृति संकाय द्वारा निर्देशित आगम मंथन प्रतियोगिता के बारे में बताया। प्रतियोगिता में देश-विदेश से 1522 प्रतियोगियों ने भाग लिया। इसमें विराटनगर की मनीषा सिंघी ने प्रथम स्थान, लूणकरणसर की मोनिका छाजेड़ ने द्वितीय एवं जयपुर की विजयलक्ष्मी ने तृतीय स्थान प्राप्त किया।
तपस्याओं के क्रम में उषा भूरा ने मौनपूर्वक 32 की तपस्या का प्रत्याख्यान किया और भी अनेक तपस्वियों के प्रत्याख्यान किये।