विश्व वंदनीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेंद्र सुरीश्वरजी महाराज साहब के प्रशिष्यरत्न राष्ट्रसंत, युग प्रभावक श्रीमद् विजय जयंतसेनसुरीश्वरजी म.सा.के कृपापात्र सुशिष्यरत्न श्रुतप्रभावक मुनिप्रवर श्री डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा. के प्रवचन के अंश
🪔 *विषय : साधुत्व की सौंदर्यता*🪔
~ देव, गुरु, धर्म की सेवा, भक्ति का प्रथम कदम सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र की साधना से ही होता है।
~ आत्मा की अनंत शक्ति को देखकर उसे प्रकट करना ही सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र।
~ शुद्ध चैतन्य की साधना से शुद्ध दर्शन, ज्ञान, चरित्र को अत्यंत और आत्यन्तिक रूप से पाना वह है साधक की सिद्धि।
~ दर्शन, ज्ञान, चरित्र की जैसे-जैसे शुद्धि बढ़ती है वैसे मुक्ति का अंश प्रकट होता है।
देव, गुरु, धर्म की गहराई में साधक जैसे-जैसे डूबता है वैसे-वैसे शुद्ध दर्शन, ज्ञान, चारित्र की साधना में शुद्धता, एकता, तीक्ष्णता प्रकट होती है।
~ जहां आत्मा और कर्म का भेद, सत्व का दर्शन, आत्मलक्ष्य है, आत्म साक्षात्कार का प्रबल पुरुषार्थ है वहां वहां साधना तेज धार वाली है और सिद्धि के करीब ही है।
~ सम्यक् ज्ञान ने चैतन्य की अनुभव दशा दिखाई ,अब हमें उसे ही पाने का प्रबल पुरुषार्थ सम्यक् ज्ञान के बल से करना ही चाहिए।
~ कर्म क्षय करने के लिए सम्यक् दर्शन, ज्ञान वाली क्रिया से ही हो सकता है।
~ जहां ज्ञान है वहां पाप है ही नहीं और जहां पाप है वहां ज्ञान नहीं है।
~ मानव जीवन में आने के बाद हमें हमारी आत्मा को पाना ही, वो ही यह मानव जीवन की सफलता और समय का परम सदुपयोग है।
~ जिस साधक के पास नव तत्व की श्रद्धा अखंड है वह कहीं पर भी भ्रमित अंध श्रद्धा वाला होता ही नहीं।
~ ज्ञानियों ने कहा कि जिसे आज दुख पसंद है और समता से सहन करता है उसे भविष्य में कोई दुख ही नहीं आएगा, इसीलिए प्रभु ने तप धर्म दिखाया।
*”जय जिनेंद्र-जय गुरुदेव”*
🏫 *श्री राजेन्द्रसुरीश्वरजी जैन ट्रस्ट, चेन्नई*🇳🇪