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आत्मस्वरूप का दर्शन करने के लिए सिद्ध भगवंत की आराधना करनी चाहिए – आचार्य उदयप्रभ सूरी

आत्मस्वरूप का दर्शन करने के लिए सिद्ध भगवंत की आराधना करनी चाहिए – आचार्य उदयप्रभ सूरी

किलपाॅक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरी समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने नवपद आराधना के दूसरे दिन कहा कि चौदह राजलोक में केवल सिद्धशिला को छोड़कर सब जगह दुख है। देवलोक व स्वर्गलोक में भी दुख है।

सिद्ध पद पाने के बाद भवभ्रमण खत्म हो जाता है। सिद्धपद की प्राप्ति के लिए धर्म आवश्यक है। सिद्ध भगवंत अनामी व अरुपी है। वे संपूर्ण चैतन्यमय होते हैं। यदि हमें भी नाम व रूप के राग को नष्ट करना है तो सिद्ध भगवान की आराधना करनी चाहिए। हम द्रव्य प्राण से जीते हैं और सिद्ध भगवंत भाव प्राण से जीते हैं। ज्ञानी कहते हैं विग्रह गति में आयुष्य प्राण तो आपके चालू ही है। हमें सिद्ध परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए कि हे प्रभु, मुझे आपके जैसी गति दीजिए। उन्होंने कहा आत्मस्वभाव में जाना ही सिद्धगति है। कर्मसत्ता का नाश होने पर आत्मस्वभाव की अवस्था की प्राप्ति हो जाती है।

जितनी सामग्री ज्यादा, उतनी विभाव दशा ज्यादा। जितनी सामग्री बढाओगे, उतने ही तनाव बढ़ेंगे। जीवात्मा अनादिकाल से सामग्री से ठगा है, फिर भी वह सामग्री को छोड़ता नहीं है। ‌ज्ञानियों ने सिद्ध पद पाने के लिए नवपद की आराधना करना बताया है। आचार्यश्री ने कहा सुविधा, सत्ता, सौंदर्य, संपत्ति, इनमें से कोई भी चीज साधु के पास नहीं होती है, ये चीजें संसार में भरी हुई है, फिर भी साधु ज्यादा सुखी होते हैं। सुख वह है, जो स्थाई रूप से हमारे पास रहता है। जगत में चार तरह के सुख होते हैं दुःख के प्रतिकार का सुख, दुःख के अभाव के सुख, विपाक का सुख और कर्मक्षय का सुख। जीवन में जो भी सुख-दुख आते हैं वह कर्मों के उदय के कारण आते हैं।

संसार में व्यक्ति के पास सामग्री है परंतु समाधि नहीं, क्योंकि वहां सम्यकज्ञान का अभाव है। अपनी आत्मा का विचार आना ही मोक्ष मार्ग का प्रथम पहलू है। अपनी आत्मा के स्वरूप का दर्शन करना है तो सिद्ध भगवान की आराधना करनी चाहिए। उन्होंने कहा सिद्ध भगवंत बनने के लिए शरीर की ममता और कदाग्रहों का त्याग करना और नित्य सिद्ध भगवंत का ध्यान करना जरूरी है। उन्होंने कहा परिणाम अच्छा हो, वैसा काम करना चाहिए, न कि वर्तमान को अच्छा करने के लिए। कोई भी काम ऐसा मत करो कि दूसरों की निंदा करनी पड़े। अच्छा काम करने के बाद में पछताना पड़े, वैसा काम भी नहीं करना चाहिए।

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