चेन्नई. किलपॉक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने बताया भगवान महावीर ने अपने कर्मों को खपाकर केवल्य ज्ञान की प्राप्ति की। आत्मशक्ति के बिना सहन करना मुश्किल है। आत्मशक्ति की पहचान स्वभाव के बिना नहीं होती। भगवान महावीर के तीर्थ की स्थापना के समय ग्यारह गणधर के संशयों का निवारण किया।
उनके प्रथम गणधर इन्द्रभूति अहंकारवश समवशरण पहुंचे और महावीर के मुख के दर्शन होते ही स्तब्ध रह गये। महावीर ने उनको नाम से पुकारा और उनके मन में चल रहे जीव और आत्मा का संशय दूर किया। सुख दुख का अनुभव करने योग्य आत्मा है। व्यक्ति की मृत्यु होने के बाद जो अन्दर का अनुभव करने वाली आत्मा निकल जाएगी।
आत्मा प्रत्यक्ष है। जो चीज जगत में नहीं है उसे निषेध करने की जरूरत नहीं है। इन्द्रियों का अनुभव करने वाली आत्मा है। शरीर एक घर है उसमें रहने वाली आत्मा है। गौतम के संशय का समाधान होने पर पांच सौ शिष्यों के साथ भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की।
उन्होंने कहा दूसरे गणधर अग्निभूति के कर्मों के बारे में संशय का समाधान किया। महावीर ने बताया दुनिया में कारण के बिना कोई कार्य नहीं होता है। इसका कारण कर्म है। भूतकाल में किए कर्मों के अनुसार वर्तमान में फल मिलता है। तीसरे गणधर वायुभूति का संशय शरीर ही आत्मा है नया जन्म मरण कैसे होगा, दूर किया।
इसी तरह चौथे गणधर आर्यव्यक्त और पांचवें सुधर्मास्वामी का संशय मनुष्य स्वरूप के बारे में था। छठे गणधर बंधीपुत्र गणधर है। सातवें मौर्यपुत्र का संशय जगत में देव है या नहीं, को दूर किया। आठवें अकम्पित गणधर का संशय नारकी के बारे में था। नौवें अचलभ्राता को पुण्य पाप के संशय का समाधान दिया।
दसवें मेतार्य मुनि का संशय परलोक के बारे में था और अंतिम प्रभात मुनि का संशय था मोक्ष है कि नहीं। उन्होंने बताया कि चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय है और ग्यारह गणधर ब्राह्मण। तीर्थंकर के मार्ग पर चलने वाले वैश्य है।
इससे पूर्व मुनि तीर्थ बोधिविजय ने महावीर की बाल्यावस्था, विवाह, दीक्षा और उपसर्गों का विवेचन किया। उन्होंने कहा महावीर भगवान के जितने उपसर्ग आए उतने बाकी तेइस तीर्थंकर को मिलाकर भी नहीं आए।