आत्मा पर जो वास्तविक नहीं है, जो नाशवंत है, जो क्षणिक है, वह पदार्थ शासन करे यह तो बिलकुल अनुचित है। धर्म का अधिकार प्राप्त करनेवाला व्यक्ति अन्य पदार्थों को स्वयं पर शासन नहीं करने देता।
आनंदमयी बनकर प्रवाहित रहनेवाली नदी को समंदर में मिलना ही है। इसलिए उसने अपना स्वरुप विराट बना लिया। हमारी आत्मा को परमात्मा । स्वरूप प्राप्त करना है, तो छोटी बातों से दूर रहकर विराट लक्ष्य को प्राप्त करना । | ही पड़ेगा। समंदर को प्राप्त करने के लिए नदी सब कुछ त्याग करने हेतु, न्योछावर करने हेतु तैयार है। किन्तु क्या हम सत्य की खोज हेतु कोई प्रयत्न | करते हैं? नदी बहती है इसीलिए स्वच्छ है अन्यथा उसे मलिन होने से कोई | नहीं रोक सकता। अस्खलित धारा में बहने से ही आनंद प्राप्त होता है।
आत्मा बंधन में फँसता है क्योंकि वह सदा बंधनों के आसपास ही | रहता है। आत्मा के बंधन को जानने से ही संसार के बंधनों से मुक्त बना जा सकता है किन्तु हमारी दृष्टि उस दिशा में है ही नहीं। मुक्ति की ओर नहीं ले जानेवाला बंधन मोह है। अनंत संसारभ्रमण का मुख्य कारण मोह ही है। | जिसके पास अश्रद्धा है, वह कुछ भी स्वीकार नहीं कर सकता । ज्ञानीओं ने सम्यग्दर्शन की प्राप्ति को भवभ्रमण नष्ट करने का रास्ता बताया है।
आत्मप्रगति का इच्छुक साधक इतना पराक्रम धारण करता है कि | किसी भी स्थिति में धर्म का साथ ना छूटे। जिसकी सोच ही छोटी है वह धर्मक्रिया करने के बावजूद भी उन्हें गलत मानेगा, प्रसन्न नहीं बनेगा। जबकि विचारों से महान व्यक्ति धर्मक्रिया ना करता हो तब भी उन्हें सर्वोत्कृष्ट ही मानेगा। जिसे धर्म करना ही है वह चातुर्मास, संघ, यात्रा, तीर्थ, अनुष्ठानों की अनुपस्थिति में भी सदा प्रसन्न रहेगा, सदा जागृत रहेगा। यही है एकांतसमाधि – चाहे सुख हो या दुःख हो, चाहे अनुकूलता हो या प्रतिकूलता हो, चाहे धन हो या निर्धनता हो, चाहे प्रिय पदार्थों का संयोग हो या वियोग हो; धर्म को सम्पर्क | समझनेवाला जीव सदैव एकांतसमाधि में रहेगा अर्थात् मन की स्थिरता को करती । | कभी नष्ट नहीं होने देगा और उस जीव के आत्मपरिणाम हर घड़ी स्वर्णिम बने। | रहते हैं। उस जीव के विचारों में क्षुद्रता कभी प्रवेश नहीं
आत्मसमाधि की प्राप्ति हेतु कर्मग्रंथ में ज्ञानी महर्षि ने यह व्यवस्था । बताई है। जिसने भी कर्मग्रंथ का अभ्यास कर लिया, वह आत्मसमाधि की | उच्चदशा का मार्ग समझ सकता है। समाधि का भाव प्राप्त करनेवालों के लिए किसी भी स्थिति में समभाव धारण करना अत्यंत सरल बन जाता है।
श्रेणिक | राजा का ही जीवन देख लो, कोणिक भी उनका पुत्र है और अभयकुमार भी। कोणिक उनको मारनेवाला बनता है और अभयकुमार चारित्र परिणामी थे । । | श्रेणिक राजा ने परमसमाधि का मार्ग प्राप्त कर लिया था अतः सुख या दुःख दोनों ही स्थिति में स्वयं के दृष्टाभाव का अनुभव कर सके। यह दशा अल्प आत्माओं को प्राप्त होती है।
आपकी सब से बड़ी यात्रा यदि कोई है, तो वह है आपका ज्ञान, | आपका विचार, आपके संस्कार। इसीलिए हमारे विराट स्वरुप की भूमिका में | हमारे विचार मूलभूत नींव का कार्य करते है। हमारे वर्तमान के बीज हमारे |
भूतकाल में बोये गये थे। यदि हम वर्तमान में अत्यंत क्रोधी है तो संभव है कि | पूर्वभव में सर्प आदि कषाय से भरपूर भव हमने प्राप्त किये हो। लोभी जीव के | पूर्वकालिन स्वभाव के कारण उसका लोभ अत्यधिक बढता रहता है। | इसीलिए त्याग की महिमा को समझना अत्यंत आवश्यक है। हमारे भीतर क्या छुपा हुआ है, कौन से संस्कार द्रढ किये हुए है; यह देखना ही हमारा सत्य धर्म । जो भी जीव इस धर्म के पालन से चूक गया, वह निश्चित रुप से भवभ्रम की गर्ता में गया है। यह श्री जिनेश्वर भगवंत के वचन है ।’अभिधान राजेन्द्र कोष में जिनवचन का माहात्म्य सुंदर प्रकार से बताया गया है।