किलपॉक संघ में नूतन श्राविका उपाश्रय का हुआ भूमिपूजन
किलपॉक श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ के तत्वावधान में एवं गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभसूरीश्वरजी की निश्रा में मंगलवार प्रातः नूतन श्राविका उपाश्रय का भूमिपूजन एवं आचार्यश्री केसरसूरिश्वरजी महाराज की पुण्यतिथि पर गुणानुवाद के कार्यक्रम आयोजित हुए। सोमवार को आचार्यश्री का पदार्पण किलपॉक जैन संघ में हुआ। प्रवचन के दौरान गुणानुवाद सभा में गच्छाधिपति उदयप्रभसूरीश्वरजी ने कहा कि व्यक्ति के परिचय से परिवर्तन नहीं आता। सज्जन व्यक्ति के सन्मार्ग से परिवर्तन आता है। सज्जन व्यक्ति के जीवन का मूल आधार सन्मार्ग है। किसी के द्वारा सन्मार्ग मिले, वह सम्यक ज्ञान है। सम्यक ज्ञान से सम्यक चारित्र अधिक महत्वपूर्ण है। शब्द से ज्यादा, आचरण से स्वभाव का ज्ञान आता है। साधु साध्वियों की एक खासियत है कि वे जो भी बोलते हैं आचरण द्वारा बोलते हैं। उनके शब्दों से भी आचरण निर्मित होता है।
उन्होंने कहा कि आचार्यश्री केसरसूरिश्वरजी के पास तीन शक्तियां थी लेखन शक्ति, प्रवचन शक्ति और ज्ञान शक्ति। तीनों का समन्वय एक व्यक्ति में मुश्किल से मिलता है। आत्म शक्ति के बल पर ही उनका समन्वय पाया जा सकता है। जिस तरह केशर पानी के आलंबन के साथ रंग छोड़ता ही रहता है, उसी तरह केसरसूरीश्वरजी अपनी शक्तियों को जागृत रखते थे। उनमें राग, प्रेम, क्षमा, करुणा थी। राग से प्रेम, प्रेम से क्षमा और क्षमा से करूणा पैदा होती है। करूणा क्षमा का प्राण है। वैसे ही उनमें करुणा का भाव कूट कूट कर भरा था।
उन्होंने बताया कि उनको नौ वर्ष की आयु में माता लक्ष्मीदेवी और पिता माधवभाई के अकस्मात देहांत हो जाने के बाद संसार से विरक्ति हो गई। 1833 में उन्होंने चौदह वर्ष की आयु में संयम जीवन ग्रहण किया।
उन्होंने कहा कि हमें संकट के समय चिंता नहीं चिंतन करना चाहिए। चिंतन ज्ञान है, चिंता अज्ञान है। दुख से वैराग्य प्रकट होना बहुत बड़ी बात होती है। दुर्घटना, वियोग पर हमें रोना नहीं चाहिए। कर्म के ऊपर हमारा चलता नहीं है। उन्होंने कहा कि सिद्धगति हमारा स्वयं का घर होता है और संसार किराए का। स्वयं के घर में जाने के लिए अभ्यास की जरूरत होती है। दुख के काल में श्रद्धा की कसौटी होती है, सुख के काल में सत्व की कसौटी होती है। उत्तम और गुणवान आत्माओं के प्रति आकर्षण होने पर समझना हमारा संसार सीमित होने वाला है। आचार्य केसरसूरीश्वरजी की निर्मल दृष्टि थी और निर्मल दृष्टि के कारण ही आत्मदृष्टि द्वारा लक्ष्य को पाया। आत्मकल्याण करते-करते लोककल्याण को भूलना नहीं और लोककल्याण करते-करते आत्मकल्याण को छोड़ना नहीं, यह उनके जीवन का उत्तम तत्व था। साधु जीवन ज्ञानदान देने के लिए होता है। ज्ञान की शक्ति अनादिकाल से हमारी आत्मा में रही हुई है। उनकी साधना उत्कृष्ट कोटि की थी। साधन नहीं थे, लेकिन साधना का बल था। योगशास्त्र का सबसे पहले रूपांतरण केसरसूरीश्वरजी महाराज ने किया। बुद्धिमता, भावनाएं और रचनात्मक भाग उनके पास था।
आचार्यश्री ने कहा कि ज्ञान बाद में देना, पहले ज्ञान को लेना सीखो। किसी के मन को पढ़ना साधु का काम है। ज्ञानी कहते हैं अधिक दुख और अधिक आनंद प्राण ले लेता है। संपत्ति मिली है तो उपयोग करना सीखो। सत्ता मिली है तो उपकार करना सीखो। जिसके हृदय में धैर्यता है, वही परोपकारी बन सकता है। मर्यादा के बाहर उपयोग करने पर संपत्ति मारक बन जाती है। सेवा स्वभाव से होती है और पूजा प्रभाव से होती है। अध्यात्मयोगी शांतिसूरीश्वरजी ने उनको अंतिम समय के संकेत दिए। ज्ञानस्थ मुद्रा में अर्हम् नमः का जाप करते हुए उन्होंने प्राण त्यागे। उन्होंने कहा कि हमें मृत्यु से डरना नहीं और मृत्यु को सामने से लेने जाना नहीं।