रायपुरम जैन भवन में जयतिलक जी मरासा ने प्रवचन में बताया कि आगार धर्म के अंतर्गत अनर्थदण्ड आठवें व्रत का चल रहा है! बिना प्रयोजन के पाप। सातवें व्रत में आवश्यक बोलों की मर्यादा कर ली! अब अनर्थदण्ड के अन्दर जो आवश्यक नहीं है उन चीजों का त्याग! किसान खेती करता है आवश्यक वस्तु के लिए किंतु अनावश्यक घास फूस स्वतः उग आती है तो खेती के सही उपज के लिए अनावश्यक पौधे उखाड़ देता है वैसे ही हमें भी अनावश्यक पाप को त्याग करना है ! बिना बोध के बिना ज्ञान के पाप कर देते है अतः गुरु महाराज जीवो को सत्बोध देकर अनावश्यक पाप का त्याग का उपदेश देते है।
आज संसार में बिना प्रयोजन का ही पाप होता है पैसा भी व्यर्थ होता है शरीर की भी हानि होती है। बचपन में ही अनावश्यक पापो का जैसे सप्त कुव्यसन, पंतग उडाना। ऐसे खेल जिसमे जीवों का धमासान होता हो, हानि होती हो ऐसे खेल का त्याग करवा दो। नदी के किनारे, पर्वत की चोटी के कीनारे, फुल पर आदि सेल्फी लेना जिससे जान खतरे में पड़ जाती है! खतरनाक खेलकूद नहीं करना ! विवेक बुद्धि से जीना ! अनर्थ का पाप, जान माल की हानि होती है पीछे पूरा परिवार दुःखी होता है! शादी विवाह में दिखावे की जरूरत नहीं! अच्छी प्रवृत्ति, अच्छे कर्म से प्रशंसा होती है जैसे पुणीया श्रावक को क्यों याद करते हैं उनके अच्छे कर्म से। इस पांचवे आरे के अंतिम समय तक पुणिया श्रावक की प्रशंसा होती रहेगी! दिखावे से बचें। पाप के अनर्थ से बचो!
सरकार हर वर्ष रीपोर्ट निकलती है कितना अनाज बेकार हो रहा है! कितने लोग भूखे सोए ! कितना अन्न की जरूरत है आदि, उसमें अरबो खरबो टन अनाज बेकार हो जाता है। इन पापों को आगे इस जीव को भी भोगना पड़ता है। अत: अन्न का बिगड़ा बिल्कुल नहीं करना चाहिए। यह अनर्थदण्ड है। मर्यादा करो! ऐसे पाप से बचने का संकल्प कर के धन की मर्यादा कर लो और अपने समय को धर्म कार्य में लगाओ। संचालन गौतमचंद खटोड़ ने किया।