पुज्य जयतिलक जी म सा ने जैन भवन, रायपुरम में प्रवचन में बताया कि भव्य जीवों को संसार सागर से तिरने के लिए प्रभु महावीर में जिनवाणी रूपी गंगा प्रवाहित की! धर्म तीर्थ का प्रवर्तन किया। श्रुत धर्म चारित्र धर्म- अणगार – छ: काय हिंसा का सर्वथा त्याग।
आगरधर्म के 12 व्रत – 5 अणुव्रत, 3 गुणव्रत, 4 शिक्षा व्रत। संसार की मूल उत्पति छः द्रव्यों से हुई । धर्म, अधर्म, आकाशतिकाय, पुदगलास्तिकाय, काल द्रव्य, जीव द्रव्य, धर्मस्तिकाय-जीव को गति देता है। अधर्मास्तिकाय- जीव को रोकने में सहायक बनता है! धर्म में जीव हमेशा गतिमान होना चाहिए जहाँ रुक गया वहाँ ममत्व है संसार है पाप कर्म का बंध होता है! अनारक्त बनो! कहते है आकाश से तारा टूटता है नीचे गिरता है जिसे देख कर कोई दुःख सुख का अनुभव नहीं करता है। इसी तरह सहज भाव से रहो! सहजता से कर्म बंध नहीं होता। धर्म का अर्थ ही यही है सहज रहना। बढ़ते रहना। बहता पानी निर्मला”, पानी एक जगह जमा होने से सड जाता है। बहते रहने से निर्मल रहता है। आगे बढ़ने रहना इसके लिए धर्म आवश्यक है व्रत धारण करना।
व्रत निर्लिप्त रहना सीखता है। प्रमाद में रहने से आगे नहीं बढ़ सकता है! जहा राग है वहां बंधन है। व्रत धारण करने से ममत्व कम होता है। निर्वात जीवन जीना सिखाना है। दूसरे व्रत का वर्णन चल रहा है। एक सेठ जी जो संपन्न थे सामायिक करते है ! गाँव के सभी लोग धर्म ध्यान करते। उस गाँव का एक ऐसा व्यक्ति था जिसका समय अशुभ कर्म उदय था। जीवन से परेशान हो गया। आत्म हत्या का विचार करता है। मारना पाप है तो मरना महापाप है आत्महत्या से अनंत संसार परिभ्रमण बढ जाता है एसे समय में संतो का आगमन होता है । संत समागम के लिए संत सानिध्य में पहुँचे ! गुरु महाराज ने कहा इस माल से वह चाहे किसी जरूरतमंद साधर्मिक को दे दो उससे वह धन कमायेगा और इसी तरह आगे से आगे सहायता करते जाओ! यह है साधर्मिक भक्ति।
एक दूसरे को सहयोग देकर आगे बढ़ाओ यह धर्म है। रोकना अधर्म है। स्वयं भी आगे बढ़ो दूसरों को भी आगे बढ़ने का मौका दो! अगर कोई सामायिक की, तपस्या, की, धर्मध्यान की, धर्मकार्य की आज्ञा माँग तो उसे रोको मत! धर्म में सहयोग करना ! धर्म में अन्तराय कभी मत दो! अन्यथा संसार में भटकने की कोई सीमा नहीं होगी। धर्म में अन्तराय देने से स्वयं का भी धर्म छुट जाता है! हमारा मूल कर्तव्य यही है कि परिवार को धर्म से जोड़े। घर में बहार आ जायेगी। प्रसंग दूसरा अणुव्रत का चल रहा था।
प्रथम अचितार “सहसम्भवान ! अर्थात झुठा इल्जाम लगना, कलंक लगाना, हास्य वश, भयवश, क्रोध वश किसी पर भी कलंक नहीं लगाना। अगर कलंक लगे व्यक्त की बुद्धि विचलित हो जाती है तो वह आत्म हनन कर सकता है। तमिलनाडु के एक महान संत ” तिरुवल्लुवर थे जिन्हें जैन संत माना जाता है। उनके सिद्धान्त जैनधर्म के सिद्धान्त से मिलते झूलते थे! वह कपड़े बुनने का व्यापार करते थे । उनका एक सदगुण था, उन्हे कभी क्रोध नहीं आता था! उन पर उस गाँव की एक कन्या ने झूठा आरोप लगा दिया ! वह गर्भवती हो गई तो तिरुवल्लुवर संत पर झुठा आरोप लगा दिया! संतान उत्पति के बाद उनके झोपड़ी के बाहर रख कर आ गई। संत ने उस बच्चे की सेवा सुश्रूषा की। एक बार रात को बच्चा जोर जोर से रोने लगा । रुदन से उस कन्या का मातृत्व जाग उठा । वह माता पिता के पास के जाकर रोने लगी, संत गलत नहीं है मैंने झूठा आरोप लगाया वह परिवार सहित जाकर क्षमायाचना करती है। संत ने बिना किसी उपालंभ के वह बच्चा सौंप दिया।
ऐसे से अतिचार से बचो! अगर कोई सहन करने में सक्षम न हो तो जीव हिंसा भी हो सकती है! परिवार भी बर्बाद हो सकता है! निकिचित कर्मो का भी बंध हो बकता है। अतः भगवान कहते है ऐसे निकृष्ट कर्मो से बचो ! स्वयं भी सुखी रहो भी दूसरो को सुखी रहने दो। संचालन नरेन्द्र मरलेचा ने किया। यह जानकारी धर्मीचंद कोठारी ने दी ।