प्रसिद्ध समाज सुधारक संत कबीर जी की पंक्ति हमारे आज के संत सामाज पर कुछ अपवादों को छोड़कर सही रुप से चरितार्थ होती है। मानव समाज के सार्वभौमिक कल्याण के मूल उद्देश्य से भटके हमारे संत आज स्व कल्याण के बजाय धनार्जन के कारोबार में लगे है।
क्या पैसा ही सब कुछ है ? पैसा सब कुछ नहीं परंतु बहुत कुछ है। आज के इस भौतिकवाद के दौर में पैसा ही ईश्वर हैं । एक कहावत प्रचलित हैं। “बिना पैसे श्रावक की कीमत कौडी की एवं पैसे से साधु कि कीमत कौडी की।” क्या यह कहावत समयोचित है ? प्रथम पंक्ति बिन पैसे के श्रावक का मान कौडी का है। कोई बिन पैसे वाले श्रावक को नहीं पूछता है। चाहे वह कितना ही धार्मिक हो, सरल हो, दयालु हो,अनुकंपावान हो। नातेदार, रिश्तेदार दोस्त यहाँ तक की कुछ साधु वृन्द भी उनसे व्यवहार तो अलग बात करने के लिए भी तैयार नहीं हैं। इससे यह सिद्ध होता हैं कि कहावत सही है।
दूसरी पंक्ति पैसा रखने वाले साधुवृन्द कि कीमत कौडी की। लेकिन इस को सिद्ध करना पत्थर से पानी निकालने जैसा है। प्राय: देखने में एवं सुनने में आ रहा है कुछ अपवादों को छोड़कर बहुत से सन्त वृंदो का अर्थ पर एवं उसके संचालन पर आधिकार होता है। कुछ संतवृंदो के निर्देशानुसार संस्थाए बनाई जाती है।
उन संस्थाओं में कार्य, धन संग्रह एवं धन विसर्जनउन्ही के निर्देशन पर होता हैं। संतो का इन संस्थाओं पर पूर्ण एकाधिकार होता हैं। संस्थाए और इनके मातहत केवल संतो की आर्थिक सामाजिक और राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के साधन मात्र होते है। ऐसे संत वृंदो के धन का नियंत्रण कुछ चुनिंदा और खास श्रावको के पास होता है। उनके अकूत धन की पूरी जानकारी प्राय: समाज के कुछ प्रतिष्ठित पूंजीपती और नाते-रिश्तेदारों के पास ही होती हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर ,जिन साधु सन्तों के पास जितना ज्यादा धन होता है उतने ही ज्यादा उनके अनुयायी होते है।वर्तमान में शायद 20-25 प्रतिशत साधुवृन्द ही अर्थ के इस अनूठे खेल से अछूते होंगे। तो क्या भूत की कहावत वर्तमान में अस्तय सिद्ध हो रही हैं। कृपया गहन चिन्तन करे। अर्थ के साथ व्यर्थ का खेल खेलने वाले सन्त वृंदो से दूरी बनायें। ताकि समाज की जागृकता का उन्हें अहसास हो सके।
बिना कौडी के साधु समाज को चाहिए की वे जैन दर्शन के मौलिक सिद्धान्त जीयो और जीने दो, विवेक, जागरुकता, देशकाल भाव से जन जन को जागृत करने का प्रयास करे । कृपया चिंतन मनन करे ।
सुगालचंद जैन