चेन्नई. जिस कृत्य से आत्मा की अशुद्ध परिणति होती है और जिस मन के परिणाम से आत्म गुण आहत होते हैं वह हिंसा है। यह बात यहां किलपॉक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने कही।
उन्होंने कहा आपके मन में झूठ बोलने या वैर की भावना आई तो सामने वाले को कोई नुकसान नहीं होगा, आपके आत्म गुणों को आघात पहुंचेगा, यही हिंसा है। हम चींटी जैसे छोटे प्राणी की रक्षा करने के प्रयास करते हैं, यह परदया है, स्वदया नहीं।
हमें परदया के पहले स्वदया करना जरूरी है। मन में किसी के प्रति दुर्भाव लाना आपकी आत्मा की हिंसा है। इसका विचार मन में आना ही स्वहिंसा है। अहिंसा यानी कोई जीव हिंसा नहीं करना, किसी को कष्ट नहीं पहुंचाना, लेकिन यह अहिंसा का नकारात्मक दृष्टिकोण है।
उन्होंने कहा शरीर के स्वस्थ होने पर आप निरोगी कहलाते हो, लेकिन यह व्याख्या नकारात्मक है। जिसके शरीर में स्फूर्ति, ताकत, प्रसन्नता, निर्भयता है वह सकारात्मक दृष्टिकोण है, यह दिखाई दे तो आप समझना आप पूर्ण स्वस्थ है। किसी जीव को सुख देने की कोशिश करना, दूसरों के कार्य में सहायक बनना, यह सकारात्मक अहिंसा है।
आपको पूर्ण अहिंसक बनने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना जरूरी है। प्रेम यानी दूसरों के प्रति मंगल की भावना, दूसरों को सुखी करने की भावना ही सकारात्मक अहिंसा है।
सिद्धर्षि गणि की व्याख्या है कि सकारात्मक अहिंसा से चित्त की निर्मलता होगी। अहिंसा उत्तम परमोधर्म है, लेकिन हमने अहिंसा का मतलब सीमित कर दिया है। अहिंसा में ही धर्म का समावेश है। आचार्यप्रवर ने कहा यदि मित्र बनाना है तो गुरु को अपना मित्र बनाओ।