चेन्नई. रविवार को उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि व तीर्थेशऋषि महाराज ने अलवारपेट, चेन्नई स्थित पदमचंद अरिहंत किशन तालेड़ा के निवास पर श्रद्धालुओं को संबोधित किया। उपाध्याय प्रवर ने कहा कि कई बार जीवन में प्रसंग ऐसे आते हैं कि मैं बहुत प्रेम से रहता हंू,सबको सहयोग करता हंू फिर भी लोग मुझे पसंद नहीं करते हैं। मेरा कैरेक्टर पोजिटिव है फिर भी मुझे मंगल और प्रसन्नता का अहसास नहीं होता है। जिस प्रकार गाय दूध, गौमूत्र और बैल भी देती है लेकिन फिर भी उसकी हत्या भी हेाती है। उसे अपने सकारात्मक कैरेक्टर की भी सजा भुगतनी पड़ती है। परमात्मा इसका उत्तर देते हैं कि पोजिटिव या अहिंसक बनना होगा। केवल पोजिटिव ही नहीं साथ में सहयोग और संयम भी होना चाहिए। तभी आपके सहयोग का मूल्यांकन होगा।
अच्छे लोग जीवन में सफल क्यों नहीं होते, क्योंकि वे संयम की धारा को छोड़कर चलते हैं। सीता ने अच्छा काम करने का प्रयास किया लेकिन लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया। हमें अच्छे काम की सजा नहीं मिलती बल्कि संयम को छोडऩे की सजा मिलती है। सच बोलने से लोग नाराज नहीं होते, बल्कि सही तरीका नहीं होने से नाराज होते हैं। झूठ बोलने से कोई खुश नहीं होता लेकिन उनका तरीका अच्छा हो तो झूठ भी लोगों को खुश करता है। संयम के साथ अच्छा कार्य करोगे तो सजा नहीं मिलेगी लेकिन सफलता जरूरी नहीं है। सफलता के लिए तपस्या जरूरी है। संयम के साथ तप का बल हो तो अच्छा कार्य सफल होता है।
अहिंसा, तप और संयम तीनों साथ में रहते हैं तो ही मंगल होता है। प्रेम और संयम के साथ तपने की तैयारी रखनी पड़ती है। इसलिए परमात्मा कहते हैं कि जहां ये तीनों साथ में आते हं तो वहां मंगल होता है, नहीं तो दंगल होता है और वह उसे आदमी को बदनाम करता है। बाहर भी तपना चाहिए और अंदर भी तपना चाहिए।
तन भी और मन भी तपना चाहिए। मन और तन को तपाने के छह-छह रास्ते हैं। जैसे जैसे तन तपता है वैसे-वैसे तन शक्तिशाली बनता है, ऊर्जा बढ़ती ही जाती है। मिट्टी आग से गुजर जाए तो घड़ा और ईंट भी बन जाती है। कच्ची मिट्टी से ईंट नहीं बनती। वैसे ही एक बार तन-मन तपना शुरू किया तो कितना ही पानी डालो कीचड़ नहीं बनता है। अपने जीवन में यह कीचड़ न आए तो तप बहुत जरूरी है। पहला तप का तरीका है- अनशन।
घर परिवार और संघ को चलाने के लिए अभ्यंतर या अन्दर का तप बहुत जरूरी है। इसके बिना कभी सक्षम नहीं बन सकते। पहला तप है अपनी गलती की सजा लेना, प्रायश्चित लेना। लोग गलती स्वीकार तो कर लेते हैं लेकिन प्रायश्चित नहीं लेते और उसे दुबारा दोहराते हैं। गलती की सजा तो मिलनी ही मिलनी है, आप स्वयं ले लें नहीं तो कर्म देंगे। विनय का तप तभी फलित होता है जब प्रायश्चित लेकर करें। केवल क्षमा मांगने से सुधार नहीं होता है, प्रायश्चित लेकर ही आप में सुधार हो सकता है। इंद्रभूति गौतम परमात्मा से पूछते हैं गोशालक के बारे में तो परमात्मा कहते हैं कि वह अपराधी नहीं है क्योंकि उसने मरने से पहले प्रायश्चित किया है।
प्रायश्चित लेने वाला व्यक्ति साहुकार बनता है और न लेनेवाला व्यक्ति अपराधी। प्रायश्चित करके कोई विनय करे वही व्यक्ति सबको सुहाता है। मंजिल पर पहुंचना है तो अहिंसा, संयम और तप तीनों जरूरी है। परमात्मा को सबकुछ ज्ञात है लेकिन फिर भी इंद्रभूति अपनी हर बात को परमात्मा को बताते हैं। इसका एक ही आधार है कि अपनी अच्छी-बुरी बातों को अपने गुरु, भगवान और बुजुर्गों के साथ बांटना जरूरी है। उन्हें जाकर बताएंगे तो ही आपका मन साफ होगा। यदि चाहते हो अपने जीवन में अपना दान, धर्म और सेवा सिद्ध हो जाए तो प्रायश्चित करना जरूरी है। दुनिया में सफलता का यही सूत्र है।