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असली वैभव वही, जो आंतरिक प्रसन्नता देता है : जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

असली वैभव वही, जो आंतरिक प्रसन्नता देता है : जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

चार वैभव का वर्णन करते हुए ‘अनुमोदना वैभव’ को स्वीकार करने की प्रेरणा दी

Sagevaani.com @चेन्नई पर्युषण पर्व जीवन को उन्नत बनाने का पर्व है। इन आठ दिनों में जो तपस्या, सामायिक क्रिया, आराधना होती है, उसे बाकी के दिनों में पर्यूषण के भावों में जीना है और वहीं हमारा मूल वैभव है। असली वैभव वही है- जो आंतरिक प्रसन्नता देता है, जिसका स्मरण करते ही हमारा रोम रोम खिलता है। उपरोक्त विचार श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में पर्यूषण महापर्व के चौथे मंगल प्रभात में धर्मपरिषद् को सम्बोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने कहें।

◆ अत्यधिक पदार्थ संग्रह में आनंद से ज्यादा देता पीड़ा

आचार्य प्रवर ने कहा चार प्रकार के वैभव होते है- पहला है वस्तुगत। व्यक्तियों के पास वस्तुओं, पदार्थों की अधिकता से जितना आनंद वह दिखाता है, देखता है, वह मात्र छलावा है, जबकि पीड़ा ज्यादा देता है। पांच गाड़ी होते हुए भी चला तो एक गाड़ी में भी जा सकता है, दो गाड़ियों से चल नहीं सकता। जितना पर्दाथों का विस्तार होता है, वहां नौकर मजा लेता है और व्यक्ति तो उन वस्तुओं की सुरक्षा में ही अपना समय गंवा देता है। दूसरा है व्यक्तिगत वैभव- व्यक्ति बताता रहता है कि मेरे आश्रय में इतने ज्यादा व्यक्ति कार्य करते हैं। तीसरा है विचारगत वैभव- कभी कभी हम अहंकार के वशीभूत होकर यह विचार कर बैठता है कि यह कार्य मैं ही कर सकता हूँ। चौथा है अनुमोदना का वैभव। इस दुनिया में निन्दा योग्य कोई व्यक्ति नहीं है और अनुमोदना योग्य हर व्यक्ति है, केवल हमारी दृष्टि का परिवर्तन करना है। उन व्यक्तियों की तप:चर्चा, विसर्जन, धार्मिक क्रिया को देख उसकी अनुमोदना करनी चाहिए।

◆ कर्मराजा बहुत बड़ा बलवान

कल्पसूत्र का वाचन करते हुए, हृदय विदारक घटना से गुरुदेव ने प्रेरणा दी की कि कर्मराजा कभी किसी को नहीं छोड़ता। हमें हर कार्य को करते हुए हर समय जागरणा से कार्य करना चाहिए। परमात्मा नेमीनाथ के समय की घटना में श्रीकृष्ण- माता देवकी की घटना का रोचक प्रसंग प्रस्तुत किया। देवकी ने छहों मुनियों को आहार दान दे, जब मालूम पड़ा कि यह मेरे ही पुत्र थे तब मन में बालक को गोद में खेलाना का भाव जागा। श्रीकृष्ण ने साधना कर अपने छोटे भाई के रुप में गजसुकुमार के रूप में आया, छोटी उम्र, आठ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली। उसी दिन साधना के लिए, प्रतिमा धारण करने के लिए भगवान से आज्ञा ले श्मशानघाट में ध्यानस्थ खड़ा हो गया। पूर्व भवों के वैर के कारण सोमिल ने सिर पर मिट्टी की पाल बांध जलते खिरे रखे। लेकिन गजसुकुमार ने समभाव से सहन कर केवलज्ञान को प्राप्त कर सिद्धत्व का वरण कर लिया।

मूख्य निमित्त कारण है, अतीत मूल कारण है, वर्तमान निमित्त बनता है और उसी से भविष्य का सर्जन होता है। वर्तमान अतीत का परिणाम है, जो इसको जान लेता है, पहचान लेता है, वह नये कर्मों का बंधन नहीं करता, वैर भाव को मन में आने नहीं देता है, समता से सहन करता है और भविष्य को सुधार सकता है।

◆ चौवदह पुर्वों का सार है नमस्कार महामंत्र

नमस्कार महामंत्र को चौवदह पुर्वों का सार है, सब ग्रंथों में सबसे बड़ा ग्रंथ है। इसमें किसी की भी पूजा नहीं अपितु गुणधारीयों को वन्दन किया गया है। इसमें पहलें णमों का उच्चारण किया जाता है, यानि नमस्कार किया जाता है, नमस्कार विनम्रता को बड़ाता है। ‘श्रीमती’ की जीवनी घटना के माध्यम से नमस्कार महामंत्र की महत्ता बताई। पुरे परिवार को संभालने वाली एक संस्कारवान नारी होती है, धर्म से परिपूर्ण नारी होती है। इसलिए हमारे यहां नारी को धर्मपत्नी कहा जाता है। गुरुवर ने भगवान महावीर ने नयसार के भव से लेकर पूर्व के छब्बीस भवों का संक्षेप में वर्णन करते हुए प्रेरणा दी- अहिंसा में धर्म है।

समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती

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