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ज्ञान वाणी

अवसर मिलने पर भी भोगों का त्याग करनेवाला सच्चा संयमी: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

अवसर मिलने पर भी भोगों का त्याग करनेवाला सच्चा संयमी: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. अपने जीवन में कभी किसी का अपमान करोगे तो उसका पुन: सम्मान भी करना ही पड़ता है, इसलिए जीवन में कभी भी किसी का अपमान न करें। बुधवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का उत्तराध्ययन सूत्र वाचन कार्यक्रम हुआ।

उपाध्याय प्रवर ने कहा कि तप करने वालों का अभिनन्दन देवता भी करने आते हैं और उनका सानिध्य पाकर स्वयं को धन्य मानते हैं। जो व्यक्ति मौका न मिलने पर चोरी, झूठ, अपराध और भोग छोड़ दिए हो वह सच्चा संयमी नहीं, बल्कि जिसने अवसर मिलने पर भी भोगों को ग्रहण नहीं किया वही सच्चा साधक और संयमी होता है।

उत्तराध्ययन में बताया कि तप करने की भावना के साथ हरिकेशी मुनि अपने पूर्वजन्म की साधना से अभिमान न हो ऐसी भावना के साथ साधना के मार्ग पर चलते हैं। उनकी इस भावना से आसपास के व्यंतर देव सोचते हैं कि हम भी कभी भविष्य में ऐसे जीवन का उपयोग करेंगे और वे हरिकेशी मुनि की भक्ति करने लगते हैं। कुछ देवता देवलोक में रहते हुए भी ऐसी भावना के साथ जीते हैं तो उनका जीवन धन्य हो जाता है।

किसी के तप के कारण आनेवाले देवता उस तपस्वी के सेवक बनकर आते हैं और उसी प्रकार देवगण उन मुनि की भक्ति करते हुए उनके साथ रहने लगते हैं। तप के कारण मुनि में अनेकों लब्धियां और सामथ्र्य प्रकट हो जाते हैं। वे एक बार बनारस के एक मंदिर में जाकर ध्यानमग्न हो जाते हैं और वहां पर राजकुमारी अपनी सखियों के साथ आती है और उनसे घृणा करती है। मुनि के साथ रहनेवाले व्यंतर देवता यह सब देख उस राजकुमारी की मानसिक स्थिति को प्रभावित कर देते हैं।

राजा द्वारा पूछने पर मांत्रिक सारी स्थिति बताते हैं और उपायस्वरूप राजकुमारी को उन मुनि को समर्पित करना कहते हैं। राजा मुनि के पास जाते हैं और राजकुमारी से विवाह के लिए कहते हैं तो मुनि उसे स्वीकार नहीं करते और राजा उसे वहीं छोड़कर चले जाते हैं और कुछ समय में राजकुमारी मुनि की औरा के कारण स्वस्थ हो जाती है और महल को लौटती है तो राजा कहते हैं कि अब इसे कौन स्वीकार करेगा और इस प्रकार पुरोहितों से मंत्रणा कर उसका विवाह एक ब्राह्मण से करा दिया जाता है। ब्राह्मण राजकुमारी से विवाह की खुशी में भोज और यज्ञादि का आयोजन करता है और उस समय हरिकेशी मुनि तपस्या का पारणा के लिए भिक्षु हेतु वहां आते हैं और मुनि के साथ रह रहे देवता आहार देने को मुनि की वाणी में कहते हैं।

ब्राह्मण उनका कृशकाय स्वरूप देखकर तिरस्कार करते हैं। देवता कहते हैं कि जिनको भोजन कराने से तुम्हारा सौभाग्य बढ़ेगा उनका तिरस्कार कर इसे तुम पाप क्षेत्र में विनियोग कर रहे हो, तुम मात्र शब्दों का बोझ ढ़ो रहे हो। किसी के मांगने पर जो दे पाए यह उस देनेवाले का सौभाग्य होता है लेकिन वे सभी इन्कार करते हैं और उन्हें भगाने की कोशिश करते हैं।


मुनि के सेवक व्यंतर देव यह सब देखकर वहां पर अपनी माया से सभी को दंडित करते हैं और तभी वह राजकुमारी वहां आकर उन मुनि को देखकर क्षमा मांगती है और कहती है कि इन मुनि की कृपा के कारण ही तुम लोग मुझे प्राप्त कर पाए हो। वह उनसे क्षमा मांगने को कहती है। ब्राह्मण क्षमा मांगते हुए उन्हें क्रोध न करने और इतनी लब्धियों की प्राप्ति का मार्ग और देवताओं द्वारा सेवित होने का उपाय और तप का मार्ग पूूछते हैं।

मुनि कहते हैं कि वे तो ना कभी आप पर क्रोध थे, न हैं और न भविष्य में कभी होंगे। सारी माया यक्षों और व्यंतर देवों की थी। आत्मा ही मेरा तप है और तप ही मेरा यज्ञ है। इस यज्ञ में अपने शरीर रूपी ईंधन का उपयोग करता हंू और मेरे कर्मों को जलाता हंू। संयम ही मेरा शांतिपाठ है और आनन्द ही मेरा स्नान है। इस प्रकार मुनि द्वारा उन्हें परमात्मा का धर्म मार्ग मिलने पर वे सभी उनकी शरण ग्रहण करते हैं।

स्वजनों के साथ ऐसा रिश्ता रखें कि हर बात उनसे शेयर कर पाएं। यह रिश्ता जीवन में आ जाए तो कोई भी युवा गलत रास्ते पर नहीं जा पाएगा। जो धर्ममार्ग पर चलते हुए आनन्द की अनुभूति करता है वह सारे दोषों से मुक्त हो जाता है। धर्म के सरोवर में शांतिपूर्वक जो स्नान करता है, वह निर्मल और धन्य हो जाता है।

जीवन में दो तरह के खतरे हैं- एक से तो बाहर निकला जा सकता है और दूसरे से निकलने की कोशिश करने पर और उन समस्याओं में जीव उलझता जाता है। दुष्टता से किए जाने वाले पाप से जीव बच सकता है, लेकिन बदले की भावना से किया गया पाप बड़ा भयंकर है। बदले की भावना से किया जाने वाला पाप नियाणा है। इससे संयम से नरक और साधना से पाप जन्म जाता है। इस पाप के कारण चित और संभूति के निरंतर पांच जन्मों तक साथ रहने वाले रिश्ते भी छठे जन्म में टूट गए।


परमात्मा कहते हैं कि कृतघ्न व्यक्ति का कभी सम्मान मत करो, उसका तिरस्कार ही होना चाहिए। ऐसे व्यक्ति को गले लगाने वाले को भी नरक ही प्राप्त होता है। कृतघ्न व्यक्ति को चाहे कुछ भी मिल जाए उसमें वफादारी कभी नहीं आ सकती। शंख राजा का महामंत्री नमूची अपने जीवन में अपने उपकारियों को ही धोखा देता है और अपने शरणदाता को बार-बार आघात पहुंचाता है जिससे संभूति के मन की समाधि भंग होकर उसे भी बदले की भावना के कारण नियाणा के भयंकर पाप का भागी बन बनना पड़ता है और अपने भाई चित से बिना कोई कारण अलग होना पड़ता है।

चित मुनि अपने पिछले पांच जन्मों के भाई चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त को साधना करने और धर्ममार्ग पर प्रवृत्त कराने की बहुत कोशिश करते हैं लेकिन ब्रह्मदत्त जातिस्मरण ज्ञान होने के बाद भी पूर्वजन्म के नियाणे और प्रतिशोध वश साधना के बदले भोग प्राप्ति की भावना के कारण वह इसका निर्णय नहीं ले पाता पाता है। सबकुछ जानते हुए भी वह सरोवर के कीचड़ में फंसे हाथी की भांति भोगों के मोह से निकल नहीं पाता है। वह उल्टे चित मुनि को भी भोगों में प्रवृत्त होने को कहता है।

चित्त मुनि उसे अपनी प्रजा के कल्याण के लिए धर्म, करुणा और सेवा के कार्य करने को भी कहते हैं। जो व्यक्ति भोग भोगते हुए भी यदि दूसरों को धर्म मार्ग पर प्रशस्त करे तो अपना तीर्थंकर नामकर्म का बंध कर लेता है लेकिन ब्रह्मदत्त इसे भी स्वीकार कर नहीं पाता है। चित मुनि अपनी सारी मेहनत को व्यर्थ समझते हुए वहां से चले जाते हैं और तप में आयुष्य पूर्ण कर मोक्ष में जाते हैं और ब्रह्मदत्त नारकी में जाता है।

पिछले जन्मों की साधना के रिश्ते इस जन्म में भी पुन: धर्म मार्ग और साधना से जोड़ते हैं। यदि किसी की प्रशंसा नहीं कर सकते तो किसी की निंदा न करें।

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