जीवन में अवसर बार-बार नहीं आते है और जब आते है उसे पहचानना आवश्यक होता है, जो इंसान अवसर को पहचान लेता है और अवसर का सदुपयोग करता है तब उसका जीवन सफल हो जाता है। चातुर्मास भी हमारी आत्मा का कल्याण करने का अवसर है, इस अवसर को पहचान कर जो श्रावक-श्राविका जिनवाणी, वीतराग वाणी, तप,ध्यान,उपवास,ज्ञान, दान,शील का पालन करते है, उनकी आत्मा का कल्याण हो जाता है और उनका जीवन सफल हो जाता हैं।
उक्त उद्गार श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ ग्रेटर हैदराबाद, के तत्वावधान में काचीगुड़ा स्थित श्री पूनमचंद गांधी जैन स्थानक भवन में धर्मसभा को संबोधित करते हुए उपप्रवर्तिनी महासती श्री मंगलप्रभा जी म.सा ने व्यक्त किये। संघ के संघपति स्वरूपचंद कोठारी ने आज यहाँ जारी प्रेस विज्ञप्ति में जानकारी देते हुए महासती जीवन जीने की कला को समझाते हुए कहा कि मानव जीवन बार-बार नहीं मिलता है और एक बार ही मिलने वाले मानव भव में जीवन जीना भी एक कला है, वैसे तो त्रियंच भी जीवन जी लेते है, लेकिन जीवन जीने की कला हर किसी को नहीं आती है। जीवन जीने की कला का सबसे पहला सबक यह है कि हमें अवसर को पहचानने का ज्ञान होना चाहिये। बुद्धीजन श्रावक जीवन में आने वाले अवसर को न केवल पहचान लेते है, बल्कि इसका सदुपयोग कर अपने जीवन को सफल भी बना लेते है। मानव भव में हमें जैन धर्म के रूप में उत्तम धर्म, उत्तम कुल, उत्तम संगति मिली है और यह भी हमारे लिए एक अवसर है इस अवसर को पहचानने वाले ही इस संसार में से सार को निकाल लेते है, जो इंसान इस संसार में से सार को निकाल लेता है वह अपने आत्मा का कल्याण कर लेता है। संसार में से सार को निकालना कोई आसान कार्य नहीं है और यह कार्य विरले ही करते है। भगवान महावीर की देशना को सुनकर अनार्य लोग आर्य हो गये, सैकड़ो राजा-महाराजाओं ने संयम जीवन को अंगिकार कर लिया, क्योंकि इन लोगों ने उनके जीवन में आए अवसर को पहचान लिया था। प्रभू महावीर समेत सभी तीर्थंकरों ने भी जीवन में आए अवसर को पहचान लिया था और वे संयम के मार्ग को अंगीकार कर अपनी आत्मा का कल्याण कर लिया।
शरीर में रोग होने पर हम डाॅक्टर के पास जाकर दवाई लेते है और दवाई का सेवन करने पर ही शरीर का रोग दूर होता है, केवल दवाई लेने से शरीर का रोग दूर नहीं होता है। ठीक इसी प्रकार से हमारी आत्मा पर भी कषायों का रोग लगा हुआ है और आत्मा के रोग को दूर करने के लिए प्रभू महावीर की वीतराग वाणी की दवाई का श्रवण कर इसका अनुसरन करना चाहिये। केवल श्रवण करने से आत्मा के रोग दूर नहीं होते है, बल्कि इसका अनुसरण करने से ही आत्मा कषायों के रोगों से मुक्त होती है। महासती ने बताया कि चातुर्मास हमारे लिए हमारी आत्मा का कल्याण करने का एक अवसर है और इस अवसर का सदुपयोग कर हम हमारी आत्मा का कल्याण कर सकते है, इसीलिए इस अवसर को अपने हाथ से जाने ना दे। इसके पूर्व मधुर व्याख्यानी श्री मधुस्मिताजी म.सा ने जीवन जीने की कला पर सारगर्भीत प्रवचन करते हुए कहा कि जिसे जितना जीवन मिला है वह उतना ही जीवन जिता है, न तो हम जीवन बढ़ा सकते है और ना ही इसे घटा सकते है, जह तो परमात्मा के हाथ में है, अर्थात जिसने जितना आयुष्य लेकर आया है वह उतना आयुष्य पूर्ण करता है। हमारे हाथ में न तो जनम है और ना ही मौत है, लेकिन हमारे हाथ में हमारा जीवन है और जीवन जीना भी एक कला है।
परमात्मा ने हमे नेत्र दिये लेकिन नेत्र से अच्छा देखे या बुरा देखे यह हमारे हाथ में है। ठीक इसी प्रकार से परमात्मा द्वारा दी गयी जिव्हा से हम मधुर भी बोल सकते है और कड़वा भी बोल सकते है, किसी की बुराई कर सकते है तो किसी प्रशंसा भी कर सकते है, यह सभी हमारे हाथ में है। प्रभी ने हमें हाथ दिये, जिसके जरिए हम अच्छा कार्य भी कर सकते है तो बुरा भी कर सकते है, लेकिन यह सब हमारी जीवन जीने की कला पर निर्भर होता है। जनम से लेकर मृत्यु तक जिसने जीवन जीने की कला सीख ली उसका जीवन सफल होता है और वह अपनी आत्मा का कल्याण कर लेता है, लेकिन इसके लिए अवसर को पहचानना आवश्यक है। इसके पूर्व संगीत प्रिय श्री दिव्यांशीश्री जी म.सा ने गीतिका पेश की। धर्मसभा का संचालन करते हुए महामंत्री सज्जनराज गांधी ने सभा चातुर्मास संबंधी कुछ आवश्यक सूचनाएं दी।