चैन्नई के साहुकार पेठ स्थित श्री राजेन्द्र भवन में आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिजी के सुशिष्य मुनि संयमरत्न विजयजी,श्री भुवनरत्न विजयजी ने कहा कि जिस प्रकार कमल की सुगंध को फैलाने का कार्य हवा करती है, उसी तरह आनंदित संत पुरुषों की संगत से मूर्ख भी गुणवान हो जाता है और उसके गुण भी चारों दिशाओं में फैलने लगते हैं।
जब भी किसी मंगल कार्य को प्रारंभ करना हो तो ‘सद्गुरु शरणं मम’ कहे और कार्य की पूर्णाहुति होते ही ‘गुरु कृपा केवलं’ कहे।यदि हमारे जीवन रूपी पतंग की डोर सद्गुरु के हाथ होगी तो उसे कोई नहीं काट सकता और न ही कोई लूट सकता है।जिसके समर्पण की डोर कच्ची होती है वह छूट जाता है और लुट जाता है।
सद्गुरु जिसके साथ होते हैं,वह न कहीं भटकता हैं,न अटकता है और न ही कहीं लटकता है। जिससे हमें ज्ञान प्राप्त हुआ है,उसी के सामने अभिमान में आकर अपने ज्ञान का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।पतंग स्वतंत्र होती है,लेकिन स्वच्छंद नहीं क्योंकि उसकी डोर किसी के हाथ में होती है,परिणाम स्वरूप वह आकाश की अनंत ऊंचाइयों को छूकर आ जाती है और पतंगा स्वच्छंद होता है,जो दीपक की लौ में फड़फड़ाता हुआ अपने जीवन से हाथ धो बैठता है।
जीवन में परिस्थितियां कभी अनुकूल रहती है और कभी प्रतिकूल।प्रतिकूल परिस्थितियों में जो धीरज खो देते हैं वे प्रसन्न नहीं रह सकते।इस अवसर जापान से जापानी गुरु भक्त पधारे जो आचार्य श्री जयन्तसेन सूरिजी की प्रेरणा से शाकाहारी बने,साथ ही जोधपुर से वीरेंद्र भंडारी व विजयवाडा से राजेन्द्र भवन संघ के उपाध्यक्ष अशोकजी सोलंकी मुनि श्री के दर्शनार्थ पधारे।