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ज्ञान वाणी

अपने मन और जुबान संभाल लें तो जीवन संभल जाए : उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

अपने मन और जुबान संभाल लें तो जीवन संभल जाए : उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. सोमवार को उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि व तीर्थेशऋषि महाराज ने चेंगलपेट स्थित जैन स्थानक में श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए कहा कि छह खंड का राज्य चक्रवर्ती बनने के बाद शांतिनाथ परमात्मा को महसूस हुआ कि बाहर की सारी सुविधाए होने के बाद भी शांति नहीं हो पा रही है। चक्रवर्ती दीक्षा लेते हैं लेकिन चक्रवर्ती तीर्थंकर बनते हैं ऐसे मात्र तीन ही हुए हैं। वे दीक्षा में आत्मकल्याण करते हैं और तीर्थंकर बने दोनों की अनुभूति में बहुत बड़ा अन्तर है।

ऐसा कहते हैं कि चक्रवर्ती दीक्षा ले ले तो मोक्ष में जाते हैं, नहीं तो नरक में जाते हैं। अंतिम समय में जीवनभर किया हुआ प्रपंच जीरो हो जाता है। प्राय: कहते हैं कि अंतिम समय में परमात्मा का स्मण करें तो सारे पाप धुल जाएंगे। लेकिन जैन दर्शन करते हैं कि मरने से पहले संयम का आचरण किय तो ही पाप का खाता बंद होगा। पाप के अकाउंट का कर्जा आज ही चुका देना है, लाखों साल बाद नहीं।

जितनी देरी से चुकाएंगे तो मूल से ज्यादा ब्याज हो जाता है। द्रोपदी के शब्द जब दुर्योधन को पीडि़ता करते हैं उसी समय यदि वह क्षमा मांग लेती तो उसकी कीमत इतनी बड़ी नहीं चुकानी पड़ती, इतना बड़ा महाभारत नहीं होता। हमारी चीटिंग के परिणाम हमें ही भुगतने पड़ते हैं आज नहीं तो कल। जब हम बच्चों से आगे बढऩे की अपेक्षा रखते हैं तो स्वयं भी धर्म की जिस स्थिति में कल थे उससे आज हमें आगे बढऩा चाहिए।

कुछ दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट ने दुराचार को कानूनन सजा से मुक्त कर दिया। उसे अपराध की श्रेणी से बाहर निकाल दिया। कानून बदलने से पाप नहीं बदलता है। इसी प्रकार असलियत बदलनी चाहिए। कपड़े बदलने से नहीं, अपने अन्दर का कैरेक्टर बदलना चाहिए। आदमी चाहता है कि कैरेक्टर तो वही रहे और कपड़े बदल जाए। सच और झूठ में से सच की चाल कछुए की और झूठ की चाल खरगोश की होती है लेकिन याद रखें कि जीतता कछुआ ही है। सच की चाल धीमी है लेकिन स्थाई है अैर झूठ की चाल तेज है लेकिन वास्तविक नहीं है। हमें धर्म ध्यान में स्वयं को आगे बढ़ाना चाहिए, उन्हें ग्रहण करना चाहिए न कि मात्र सुनकर समय व्यर्थ करना चाहिए।

जैसा हम कानों से श्रवण करेंगे वैसा ही मन बनेगा। हम वह शब्द नहीं बोल सकते जो हमने जिंदगी में सुने नहीं है। हम बुराईयों को सुनेंगे और देखेंगे तो ही वे हमारे आचरण में आ जाएगी।

राजा श्रेणिक जब भी किसी संत या तपस्वी को देखता है तो मन में पीड़ा होती कि यह मेरे से श्रेष्ठ है। मैं इस कार्य को करने में असमर्थ रहा हंू, काश मैं भी ऐसा कर पाता। जब किसी को अच्छा कार्य करते देखकर मन में उसे करने की भावना आए तो वह हमारे चरित्र में आ जाती है। उन्होंने प्रसन्नचंद्र राजर्षी को देखा तो सोचा कि काश मैं भी ऐसी साधना कर सकता।

परमात्मा कहते हैं कि अंतिम समय में जैसे भाव और लेश्या रहती है वही अगले जन्म की शुरुआत होती है। श्रेणिक उनके बारे में परमात्मा से पूछते हैं कि वह योगी आयुष्य पूर्ण कर कहां जाएगा, परमात्मा कहते हैं कि वह नरक में जाएगा। उन्होंने बताया कि प्रसन्नचंद्र राजर्षी तपस्या में खड़े है और दो सैनिक उनको देखते है, एक प्रशंसा करता है दूसरा उसकी निंदा। निंदा और दुसरे की बुराईयां खोजनेवाला और निंदक स्वयं भी नरक में जाता है और दूसरों को भी नरक में भेजने का कार्य करता है। उस सैनिक के निंदा के शब्द तपस्वी के कानों में जाता है और उसकी तपस्या का ध्यान आर्तध्यान में बदल जाता है, उसका मन बिगड़ जाता है, जो नरकगामी बनाता है।

हमें गुस्सा अपने कानों से सुनकर ही आता है। इसलिए सबसे पहले अपने कानों को संभालना चाहिए। अपने मकान को सुरक्षित बनाते हैं लेकिन अपने कानों को नहीं संभालते हैं। कैकेयी ने एक वाक्य बोला और दशरथ मरणासन्न हो गया। मन तो दूध जैसा है, जुबान से दही का जावण भी दे सकते हो और नमक से बिगाड़ भी सकते हैं।

परमात्मा प्रभु महावीर चंडकोशिक के पास पहुंचे और उसके दूधरूपी मन में जावण दिया और वह परमात्मा की क्षमा जैसा बन गया। अपने मन और जुबान को संभालना चाहिए। ये दो नियम यदि घर में निभा लिया तो वास्तु शांति की जरूरत ही नहीं होगी। जितना खाने में ध्यान रखते हैं कि विष नहीं खाना चाहिए, तो मन का जहर क्यों पीते हो। पेट में जहर जाएगा तो एक जिंदगी जाएगी और मन में जहर जाएगा तो न जाने कितने ही जन्म बर्बाद हो जाएंगे।

आंख, जुबान और हाथ-पांव पर नियंत्रण रख सकते हो लेकिन मन को बंद नहीं कर सकते, उसे तो इन उपरोक्त दो नियमों से ही संभाल सकते हैं। किसी के मन में जहर न डालें और किसी के दिए जहर को ग्रहण भी न करें। किसी की निंदा सुननी नहीं और किसी की निंदा करनी नहीं। अपना मन खराब करने का दूसरों को अनुमति न दें। स्वयं को बदलें। अपनी जुबान से गंदगी फैलाने का कार्य न करें। परिवार में नियम बना लें कि कोई भी सदस्य गंदा वाक्य इस्तेमाल न करें।

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