चेन्नई. श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज शुक्रवार ने उत्तराध्ययन सूत्र का वाचन करते हुए बताया कि सुधर्मास्वामी भगवान के साथ अपने पलों को याद करते हुए कहते हैं कि परमात्मा को जानना हो तो उनके ज्ञान, दर्शन, शील के साथ धीरज को भी जानना आवश्यक है। परमात्मा कहते हैं कि अपने आत्मस्वरूप को पहचानने के लिए विनय की आराधना कर लो, बिना विनय के स्वाध्याय और तप से अहंकार और क्रोध आते हैं। विनयशील के लिए सभी श्राप वरदान बन जाते हैं। परमात्मा अपनी अनुत्तरदेशना में सबसे पहले विनय का वरदान बरसाते हैं। तप, स्वाध्याय, ध्यान सहज है लेकिन विनय बहुत मुश्किल है। अविनयशील व्यक्ति के ध्यान, ज्ञान और तप से विनाश होता है। परमात्मा ने कहा है कि विनय नम्रता, जीवनशैली और समर्पण की कला व अहोभाव है, यह चापलूसी नहीं। विनयशील स्वयं की भगवत्ता को जाग्रत करके दूसरों को भी मोक्ष में ले जाता है। आगम का विधान है कि किसी का जीवन भटक जाए और विनयशील व्यक्ति का साथ मिले तो वह दुष्टता के दलदल से भी निकल सकता है।
परमात्मा कहते हैं कि विनयशील व्यक्ति वह होता है जो अपने साधना भ्रष्ट-गुरु को भी संभाल लेता है। ऐसा व्यक्ति परिस्थितियों के वश में होकर नहीं, स्वयं के दृष्टिकोण से चलता है। जो अच्छाईयों को जानकर उन्हें ग्रहण करने में समक्ष है ऐसा विनयशील भिक्षु कहलाता है। उसकी जीवनचर्या उसका समग्र स्वभाव प्रकट करती है। मेरी सोच से परे जो मुझे परमात्मा से प्राप्त हुआ है, वही मेरे लिए आज्ञा और उसे सदैव स्वीकार्य है। गुरु के सानिध्य में रहकर उनकी शैली और औरा से जो सीखा जाता है वह आज्ञा है। जो गुरु से कुतर्क करता है वह नासमझ है उसे कहीं भी ठौर नहीं मिलती। जिसमें सुनने का सामथ्र्य नहीं है वह व्यक्ति दर-दर पर ठुकराया जाता है, वह अच्छी बातें सुनते हुए भी बुरी बातों की ओर दौड़़ पड़ता है, उसे सदैव सौभाग्य और ठौर का अभाव रहता है।
स्वयं के संभालें, अपने मन आौरर कानों को संभालें, अ न बनने दें।च्छे कार्य करते हुए भी अपने मन को अच्छे भावों में लगाए रखें। समझदार व्यक्ति के सामने सदैव अपने कान खुले और मुख बंद रखें और जिससे आपका प्रयोजन सिद्ध हो वह सीखते चले जाएं। कभी भी अपनी गलतियों को छिपाएं नहीं, अपने पापों को छिपाकर उन्हें जन्म-जन्मांतर में पापों को जंगल