चेन्नई. रविवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का प्रवचन कार्यक्रम हुआ। उपाध्याय प्रवर ने जैनोलोजी प्रेक्टिल लाइफ सत्र में कायोत्सर्ग के बारे में बताया। कायोत्सर्ग किया नहीं जाता बल्कि स्थापित किया जाता है। इसका अर्थ है बोलना नहीं, सोचना नहीं, करना नहीं। मस्तिष्क जब एक्टिव होगा तो सकारात्मक या नकारात्मक कुछ ना कुछ चलता है, इन सबसे मुक्त होना कायोत्सर्ग कहते हैं। आगम में यही सूत्र है सारे कर्मों और दु:ख क्षय करने के लिए कायोत्सर्ग का विधान बताया गया है। कायोत्सर्ग चलते, बोलते, खाते हुए भी किया जा सकता है।
शरीर का जो सूक्ष्म संचालन है, जो शरीर के लिए आवश्यक है उसके अलावा कोई संचालन नहीं होगा। वहां पूरा ध्यान होना चाहिए। हमारी चेतना एक समय में एक ही उपयोग में रह सकती है, एक समय में दो कार्यों को नहीं करती है। इसी को व्यवहार में लाना है। अपने अन्दर के उस सूक्ष्म संचालन के प्रति हम पूरी तरह लापरवाह हो गए हैं, जिसके कारण हम जीवित हैं, उस २४ घंटे लगातार कार्य करने वाली चेतना को जानना और उसका ध्यान करना कायोत्सर्ग है। जहां आपका ध्यान रहेगा वहीं पर आपकी शक्ति का प्रवाह रहेगा और वही पर आपको अनुभूति होगी।
हम जीवन के एक शिखर पर पहुंच कर सोचते हैं कि जीवन का शिखर पूरा हो गया है। जब तक स्वयं की सुविधा की खोज में रहोगे तब तक पशु बनकर जीओगे। आचारांग हमें जीवन जीने की शिक्षा देता है कि जीवन में साधना व प्रगति तभी होती है जब विश्व के जीवमात्र की सुविधा के लिए खोज करना शुरू करें। यह विशेषता होती है तीर्थंकर, गंधर्व, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव की विशेषता होती है। परमात्मा कहते हैं कि हर जीव मात्र की सुख-शाता का चिंतन कर प्रयास कर।
उपाध्याय प्रवर ने भरत चक्रवर्ती की षटखंड विजय की यात्रा का प्रसंग बताते हुए कहा कि ऋषभदेव के 18 बेटे थे सबने यही सोच रखा कि जो राज्य, सुख, संपदा पिता दी है, उसी से जीवन निर्वाह कर लें, उसे ही संभाल लें। लेकिन भरत चक्रवर्ती की सोच थी कि जो मेरे पिता ने राजव्यवस्था दी है उसे पूरी दुनिया में स्थापित करना है। लोग सोचते हैं कि जीवन में कोई प्रेरक होना चाहिए। लेकिन भरत चक्रवर्ती को याद कीजिए जिसने अपने राज्य से बाहर जाकर भी राज्य संचालन का सोचा और सबसे पहले चक्रवर्ती बने। भरत के सपने हमारी भी आंखों में होने चाहिए।
वे बिना कोई तैयारी के कोई कदम नहीं उठाते थे। परायों पर सत्ता स्थापित करनी हो तो पूरी तैयारी और सबको साथ लेकर काम करें। किससे क्या काम कराना है और असंभव जगह भी संभावनाएं तैयार करता है। नए रास्ते पर चलना होता है वह हर आपत्ति की तैयारी करके चलता है। पूर्व जन्म के पुण्य तो संभवना को ही उत्पन्न करते हैं, उसे साकार करना इस जन्म के वश में होता है।
वह जहां भी जाता है, पहला प्रस्ताव सहयोग का रखता है, मैत्री प्रस्ताव भेजता है। मेरे पास ज्ञान, टेक्नोलोजी, है आप मेरे साथ काम करोगे तो आपको मेरे समकक्ष लाउंगा। जिन्होंने उसे सहयोग किया उन्हें भी उसके बराबर ज्ञान, ऐश्वर्य और टेक्नोलाजी प्राप्त हुई और जिसने प्रस्ताव नहीं स्वीकारा उनको कहता है कि तेरे अकेले की गलती की सजा पूरी प्रजा को नहीं दे सकता। तुम अपने स्वार्थ व अहंकार के कारण प्रजा का नुकसान कर रहे हो और तुम्हारे कारण दूसरे लोग भी ऐसा कर सकते हैं इसलिए उन्हें पराजित करता है, लेकिन मारता नहीं। उसके युद्ध का लक्ष्य मारना नहीं बल्कि स्वयं के साथ जोडऩा है। और उसे ही वहां की सत्ता और अपने विचारों व टेक्नोलोजी को उपयोग करने का दायित्व देता है।
जो लोग तैयार नहीं हुए उनके बेटों को तैयार कर उन्हें सत्ता सौंपता है। वह नए क्षेत्र में जाने से पहले तेला, पौषध आदि तप-आराधना कर उस उस क्षेत्र का पूरा ज्ञान रखने वाले अध्यात्मिक व्यक्ति को अपने वश में करता है और उसे सहमत कराता है कि मैं पूरे विश्व में सर्व कल्याणकारी सत्ता स्थािपत करना चाहता हंू और तुम्हारा सहयोग चाहिए। हम भी जहां भी जाते हैं तो वहां हमारे विचार को मानने वाले लोग मिल ही जाते हैं और उन्हें अपने से सहमत कराने के लिए पूरा प्रयास करें। यह भरत चक्रवर्ती की षटखंड विजय की यात्रा का प्रसंग है।
चक्रवर्ती का मतलब है, जो कह दिया वही कानून है और चक्रवर्ती बनना हो तो सबसे पहले जो पिता ने दिया है उसी में संतोषी रहने और उसी में समाधान मानने का सूत्र छोडऩा पड़ेगा। भरत चक्रवर्ती को अपने लोगों ने स्वीकार नहीं किया लेकिन वह रूके नहीं, उससे आगे बढ़े। इसलिए उन्होंने अपने भाईयों से कभी झगड़ा नहीं किया। एक नीति और तैयारी के साथ वह दिग्विजय बना। जितना मिले उसमें समाधान नहीं। इसलिए भरत चक्रवर्ती को बिना दीक्षा के ही केवलज्ञान हो गया, वो भी शरीर का अलंकार करते हुए।
उपाध्याय प्रवर ने कहा कि आराधना करनी है तो जिनशासन और भगवान महावीर की करें। जिस दिन पूजारियों की पूजा शुरू हो जाती है उस दिन भगवान को अपेक्षित कर दिया जाता है। पूजा पुजारियों की नहीं भगवान की करें। पत्तों की पूजा नहीं बल्कि पेड़ की करें। इन रास्तों पर चलो मत और चलाओ मत और चलने वाले का अनुमोदन करें नहीं। इसलिए फिसलन भरी राहों पर मत चलाइए और मत चलें। ये सब अहंकार बढ़ाने के रास्ते हैं। एक ही चेहरा रहेगा तो समाज जुड़ता है और अनेकों होंगे तो समाज का विघटन होता है।
कार्यक्रम में उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि के सांसारिक माता, भाई, बहिनें और पूरा परिवार आए, जिनका सम्मान किया गया। इस अवसर पर चातुर्मास समिति के महामंत्री अजीत चोरडिय़ा, शांतिलाल खांटेड़, एएमकेएम के ट्रस्टी धर्मीचंद सिंघवी और अनेक वक्ताओं ने अपने-अपने विचार रखे। ट्रस्ट में शामिल होने वाले नए ट्रस्टियों का स्वागत किया गया। इस अवसर पर चातुर्मास समिति के चेयरमेन नवरतनमल चोरडिय़ा, अध्यक्ष अभयश्रीश्रीमाल, कार्याध्यक्ष पदमचंद तालेड़ा, महामंत्री अजीत चोरडिय़ा, कोषाध्यक्ष जेठमल चोरडिय़ा, गौतम कांकरिया, चातुर्मास समिति चेयरमेन यशंवत पुंगलिया, सुनिलकुमार कोठारी उपस्थित रहे।
खुशी ट्रस्ट की ललिता जांगड़ा द्वारा विकलांग जनों को कैलीपर्स दिए गए तथा लगभग 20 स्थानिय तमिल लोगों ने शाकाहारी जीवन जीने की शपथ ग्रहण की और एक दिव्यदृष्टि तमिल बहिन ने गुरुदेव के प्रति भावनात्मक गीत प्रस्तुत किया। उपाध्याय प्रवर ने उन्हें शाकाहार के पच्चखान दिलाए। कार्यक्रम में पूरणमल सेठीया धर्मपत्नी सहित शीलव्रत की पच्चखावणनी हुई। दोपहर में गुरुदेव के सानिध्य में गौतमलब्धि फाउंडेशन के पूना और चेन्नई के पदाधिकारियों की मीटिंग हुई। 18अक्टूबर को 8 बजे प्रात: उत्तराध्ययन सूत्र का भव्य वरघोड़ा निकाला जाएगा सी.यू.शाह भवन से एएमकेएम ट्रस्ट में पहुंचेगा।