पुरुषवाक्कम स्थित एएमकेएम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि ने कहा श्रद्धा में बुद्धिमत्ता का प्रयोग करना चाहिए लेकिन श्रद्धा करते हुए बुद्धि का प्रयोग नहीं करना चाहिए। परमात्मा की आज्ञा को बिना अपनी तुच्छ बुद्धि का उपयोग कर श्रद्धा के साथ स्वीकार करें और उन्होंने जो सत्य मार्ग दिखाया है उसका अनुसरण करना चाहिए।
सुरक्षा की चाह रखने वाले को नियम और आज्ञा का पालन करना जरूरी है। जो स्वयं परमात्मा की आज्ञा में नहीं रहता वह स्वयं परेशान होता है और दूसरों को भी दु:खी और परेशान करता है।
गोशालक, रावण और दुर्योधन जैसे अनेकों उदाहरण ऐसे हैं जिन्होंने अपने अहंकार को नहीं छोड़ा और दूसरों को परेशान किया, जो व्यक्ति आत्मा का मूल्य भूलकर विषयों को प्राथमिकता देता है उन्हीं में रस लेता है, स्वत्व को भूलकर पर तत्त्व चिंतन करता है उसका स्वभाव कपट और छद्मस्थ बन जाता है। कोई उसे इससे बाहर निकालना चाहे तो भी वह निकलता नहीं।
घर छोडक़र जो संन्यासी बनता है लेकिन सुविधाओं का त्याग नहीं करता वह पापकर्म में डूबा रहता है। जिसने अपनी वाणी और चारों इंद्रियों पर नियंत्रण कर ले, वह मनुष्य जीवन की उत्कृष्टता को छूता है। आज्ञा स्वीकार करने के लिए ही होती है, इसमें कोई इच्छा-अनिच्छा नहीं होती, कोई चिंतन नहीं हो सकता। जिस पर चिंतन किया जाए वह तो प्रस्ताव है।
परमात्मा ने सबसे बड़ी आज्ञा प्रतिक्रमण करने की दी है। अपने प्रत्यक्ष या परोक्ष किए गए अपराधों और गलतियों का पश्चाताप कर, दैनिक प्रतिक्रमण करना जिन-आज्ञा है, परमावश्यक है।
इस जीवन का कोई भरोसा नहीं कब आयुष्य पूर्ण हो जाए अत: प्रत्येक मनुष्य को प्रतिक्रमण और अपनी गलतियों की क्षमायाचना सोने से पहले जरूर करनी चाहिए। जो सबकुछ जानते हुए भी नहीं करता है वह समझदार होकर भी नासमझ है।
तीर्थेशऋषि ने कहा अध्यात्म का चिंतन करने वाला अति उत्तम, मोह का चिंतन करने वाला मध्यम और काम, वासना का चिंतन करने वाला अधम है लेकिन जो पर की चिंता करे वह अधम से भी अधम कहा गया है। धर्म की शरण में जाने से सभी बंधन तोड़ सकते हैं।
लेकिन अपने अहंकार और प्रमाद के कारण धर्माराधना नहीं करते। राग, द्वेष रहित जो परमात्मा की शरण ग्रहण करता है वह भव बाधाओं से दूर रहता है, संसार के चक्र से मुक्त हो जाता है। परमात्मा का स्मरण करने वाला सौभाग्यशाली है लेकिन परमात्मा जिसका स्मरण करते हैं वह परम सौभाग्यशाली है।