किलपॉक स्थित एससी शाह भवन में विराजित उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी महाराज ने प्रवचन में कहा कि सत्य को सुरक्षित रखने के लिए हास्य, लोभ, भय, क्रोध और आलोच्य यानी अज्ञानता का ध्यान रखना चाहिए। बोलने के पीछे मेरे क्या भाव है, उसका ध्यान रखना चाहिए। जो बोलने के बाद विचार करता है उसे पछतावा आता है। यदि हमें पछताना नहीं है, दूसरों को कष्ट नहीं देना है, तो पहले सोचकर बोलना चाहिए। शब्द की ताकत का तमाचा शारीरिक तकलीफ नहीं देता, लेकिन सामने वाले के अंदर मानसिक कष्ट पहुंचाता है। ऐसा नहीं है कि भगवान ने जीभ दी है, हम कुछ भी बोल सकते हैं। मन को बिगाड़ने वाले काम बिना विचारे बोलने से होता है।
उन्होंने कहा कि सबसे ख़तरनाक इंद्रिय जीभ है। जीभ जैसा चाहे, वैसा उसको बोलने नहीं देना चाहिए। विवाद और स्वार्थ जिसके पास है वह अधिक बोलने से नहीं कतराते हैं। जिसने जीभ लंबी की, उसके जीवन का आनंद छोटा हो जाता है। इसलिए जीभ को 32 दांतों के अंदर रखा गया है। हमें व्यवहारिक शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा के संस्कार बच्चों को देना चाहिए। ज्ञान का अवमूल्यन नहीं आए, इसलिए गृहस्थ जीवन को टिकाने के लिए धार्मिक संस्कार बहुत जरूरी है। शब्द की ताकत अनेकों के जीवन को सुधार सकती है, तो बिगाड़ भी सकती है। शिक्षित लोगों में अवसाद, तलाक की समस्याएं अधिक बढी है क्योंकि उनमें सहन शक्ति नहीं है। परमात्मा के बताए गए शब्दों का अवमूल्यन करने से ऐसा होता है।
उन्होंने कहा कि पर्यूषण पर्व के कर्तव्यों में से एक है क्षमा। सच्ची क्षमापना जिनवाणी अचूक सुनने से ही हो सकती है। मैं जैन हूं, केवल इस भावना के साथ कभी क्षमा याचना नहीं करनी चाहिए। जिनवाणी की कभी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। परमात्मा के सख्त शब्दों में ज्ञान का मिश्रण होता है। जो अज्ञान के अंधकार को दूर करे, वह गुरु है। हमें यह श्रद्धा होनी चाहिए कि परमात्मा के शब्दों से वर्तमान भव और परलोक के कष्ट दूर होते हैं। जिसके पास अध्यात्म की गुणवत्ता है, उसे प्रथम श्रेणी का अध्यात्म करना चाहिए। अन्य दिनों की विराधना का निवारण पर्व के दिनों में की हुई आराधना से होती है। पर्व के दिनों की विराधना हमारी आत्मा को दुर्गति की ओर धकेलती है। पर्व के दिनों में संसार के कार्यों से शून्य बनकर धर्म आराधना से जुड़ना चाहिए।
उन्होंने कहा कि निकाचित कर्मों को खपाने के लिए तप से शरीर को कष्ट देते हैं। जो धर्म के क्षेत्र से जुड़कर कर्म खपाता है, वैसे कर्म उदय में आने के बाद दुर्गति नहीं मिलती। पर्वों की आराधना एवं तीर्थ क्षेत्र में की हुई आराधना हजारों गुना अधिक फलदायी होती है, व्यक्ति का सामूहिक पुण्य बंधता है। जो प्रभावना करता है, उसकी भावना उत्तम होती है। जिस भाव से जिनवाणी श्रवण करते हो, वैसा परिणाम मिलता है। कर्मों को इस भव में नहीं खपाया तो आगे के भव में दुर्गति निश्चित है।