सौभाग्य प्रकाश संयम सवर्णोत्सव चातुर्मास खाचरोद
अन्दर से छुट गया वह त्यागी किसी भी इंद्रियों को भोगने की इच्छा नहीं होती तिर्थकर भगवान को ! उनको निर्मल अवधि ज्ञान होता हे ज्ञानावणीय कर्म का मेल – नहीं। वे संसार में रहकर *त्यागी* कहलाते है, साधन को भोगने की इच्छा नहीं।
कर्म, बंध का मूल कारण उनके पास है ही नहीं। वस्तुका राग हे फिर लोभ है फिर द्वेष फिर अपने कषाय है बंधन है।
*याचक* – मांगने वाला भोग के लिये मांगता है.
*भिक्षु* – गवेषणा करना, परिषह सहन करता है। चाहना और ढूंढना उनके लिये कोई पारणा लेने जाते नही थे । भिक्षाचरी तप खुद करते थे। साधु मुलतह स्वाधीन होता है 1 काया बल प्राण हे शक्ति का उपयोग करता है गोपन नहीं करता हे। *वह साधक* ।
योगी साधन का उपयोग करता हे। अपनी कौन सी वृत्ति भोग वृत्ती ? त्यागी आत्मा को खाने की पहनने की लालसा नहीं। अपने यहाँ तप त्याग से चलते है।
कषाय को अन्दर से छोड़ना कषाय छुटे वह . *वैरागी*, जो ईच्छा ही पैदा नहीं होने दे वह *त्यागी*। ईच्छा से रहित हो जाय वह व्याग। मन को
तपायें वह तपस्वी । तनतपना अलग मन का तपना अलग.. मन मजबूत पर शरीर साथ न दे तो यह तपस्या नहीं होती, त्याग मनोबल से होता है। *तप काया बल से होता है।* जिसका कायाबल मजबूत हो वह तप कर सकता है। मना करेगा यह शरीर करेगा। मोटे लोग का मन कमजोर होता है पर दुबले पतले का मन कमजोर नहीं होता है। ताकत चाहिये मन में तन और मन भी तपा→3 मासक्षमण हुए तीनों की एक विशेषता थी सब उपर रहती थी। रोज सीढ़िया चढ़ती थी। मनोबल, आत्मबल की ताकत, दृढ़ आत्म बल उपवास से चली 35 उपवास तक गये। तपस्या वही तक करना जंहा तक सामायिक प्रतिकृमण कर सको ।
– आगम में लम्बी तपस्या का वर्णन साधुओं का आता है,श्रावक के लिये तेले से ज्यादा वर्णन नहीं आया । परमात्मा का आदेश साधु तपस्या वहीं तक करे दैनिक चर्चा में कहीं भी विघ्न पैदा न हो शरीर सक्षम है वहाँ तक करे नही हो तो तपसय्या छोड़ दे – उसके आगे उपवास नहीं करे।
दैनिक क्रिया, आराधना में विघन नहीं हो।
तपसय्या इसलिये करना कि एक प्रहर का स्वाध्याय ओर मिल पाये। साधु एक समय आहार करे, उसी में वृत्ताकार, पंतगिया गोचरी, करते थे । 1 प्रहर 3 घंटे का आहार के लिये नष्ट होता है। साधना के लिये समय मिले इसलिए तप करना , तपस्या का लक्ष्य जो कर्म है उनको छोड़ना, खाने की लालसा ,भोग की लालसा , उपभोग की वस्तु से छूटना है तपसय्या का अर्थ होता है सारे साधनों से मुक्त होना।
-दान पुण्य करो , आरम्भ -समारंभ से बचो । तप से मन की शक्ति मजबूत होती है , तपसय्या की अनुमोदना के भाव से कर्म की निर्जरा का कारण बनता हैl