श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक संघ में आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी ने प्रवचन देते हुए कहा कि दुनिया जिस रूप में है, उसे उसी रूप में देखें और सच का दामन कभी न छोड़ें। हालात कैसे भी हों, आपका नजरिया हमेंशा पॉजिटिव होना चाहिए। एक स्वस्थ और शुद्ध मन सुख-शांति और आनंद का जरिया है। सच्ची प्रगति चाहिए तो लक्ष्य के प्रति सचेत रहें और लगातार आध्यात्मिक प्रयास करते रहें। भविष्य की चुनौतियों के बारे में अच्छे से सोचकर नए टारगेट बनाएं। हमें अपना चरित्र अच्छा बनाना है और धार्मिक नहीं, आध्यात्मिक बनना है।
अध्यात्म ही मानव कल्याण का आधार है। ज्ञान हो या विज्ञान, अध्यात्म में ही इनका मूल है। आज की पीढ़ी में संवेदनशीलता की कमी है। तकनीकी शिक्षा पर जोर देने से भौतिक विकास तो हुआ, लेकिन इसे समग्र विकास नहीं कहा जा सकता है। समाज तब समृद्ध होगा, जब उसकी सिंचाई संस्कारों से होगी। इसमें पढ़े-लिखे लोगों की जिम्मेदारी ज्यादा है। अपने साथ वे दूसरों का जीवन भी संवारें। आध्यात्मिक जीवनशैली के जरिए इस जिम्मेदारी को निभाया जा सकता है। साधना में ही वह ताकत है, जिससे व्यक्ति धीरे-धीरे आसक्ति और मोह छोड़ता जाता है। साधना में व्यक्ति अंदर से मजबूत होता है। एक वक्त आता है, जब वह खुद को ब्रह्म के साथ एकाकार कर लेता है। धार्मिक बनना आसान है, मगर एक सच्चा आध्यात्मिक साधक बनना कठिन है।
साधक आध्यात्मिक दिव्यता से परिपूर्ण होता है। वह भोगी नहीं, योगी होता है। इस नश्वर जगत में परमात्मा ही संपूर्णता, श्रेष्ठता और दिव्यता का स्रोत है। आध्यात्मिक विचार पुख्ता होते ही जीवन में आनंद, मधुरता, ऐश्वर्य, सौंदर्य जैसी चीजें अपने आप बाहर आने लगती हैं। शुभ विचार और शुभ संकल्प में उलटी परिस्थितियों को खत्म करने का बेजोड़ सामर्थ्य होता है। अध्यात्म जीवन पूरी तरह से नि:स्वार्थ होता है। आध्यात्मिक विचार ना हों तो इंसान अपने रास्ते से भटक जाता है। सांसारिक ज्ञान जब अधिक हो जाता है तो घमंड आ सकता है। मगर आध्यात्मिक ज्ञान जितना अधिक होता जाता है, हम उतने ही विनम्र होते जाते हैं। सही बात तो यह है कि आत्म स्वरूप में लौटना ही अध्यात्म है। यह जीवन सिद्धि, अखंड आनंद और परम शांति का मार्ग है। भ्रम, भय, संशय और अभाव जैसी सारी इंसानी कमजोरियों की इकलौती दवा अध्यात्म ही है। इसलिए संसार में शांति और अपनी आत्मिक तरक्की के लिए आध्यात्मिक जीवनशैली अपनाएं।