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अध्यात्म मानव जीवन में संतुलन लाता है : देवेंद्रसागरसूरि

अध्यात्म मानव जीवन में संतुलन लाता है : देवेंद्रसागरसूरि

बिन्नी के नोर्थटाउन जैन संघ में आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने प्रवचन देते हुए कहा कि मनुष्य की मूल प्रकृति निर्दोष, सहज और आनंद से परिपूर्ण जीवन जीना है, जबकि आज मनुष्य का जीवन यंत्रों और उपकरणों पर निर्भर हो गया है। इसलिए मनुष्य को आवश्यकताओं के अनुकूल ग्रहण करना चाहिए और इससे आगे कोई लालसा नहीं रखनी चाहिए। यही सादगी का जीवन है। सादगी को अपनाए बिना सुख-शांति प्राप्त नहीं की जा सकती। जब तक और अधिक पाने की लालसा बनी रहेगी, तब तक मनुष्य अन्य जीवों का हितैषी नहीं बन सकता। लेकिन जैसे ही वह सादगी अपनाकर अपनी आवश्यकताओं को समेट लेता है, उसके लिए संरक्षक की मूल भूमिका निभाना संभव हो जाता है। इस प्रकार यह प्रयास ही आध्यात्मिक विकास है। अध्यात्म मानव जीवन में संतुलन लाता है।

उन्होंने आगे कहा कि जीवन में वैज्ञानिक और तकनीकी आविष्कारों की उपयोगिता से भी इन्कार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसी से मानव की सोच आधुनिक हुई है। उसके जीवन में आर्थिक प्रगति हुई है और जीवन स्तर में सुधार हुआ है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि मानव सुख-सुविधाओं और भोग-विलास में पड़कर नैतिक पतन की ओर बढ़ने लगा है। आध्यात्मिक ज्ञान उसे इन सबसे रोक सकता है। दुविधा और संकट की दशा में यह उसे सही दिशा दिखा सकता है। जहां विज्ञान मानव के जीवन स्तर का उत्थान करता है, वहीं अध्यात्म उसकी आत्मा के उत्थान के लिए जरूरी है।

इसलिए हम यह कह सकते हैं कि मानव जीवन में विज्ञान और अध्यात्म दोनों का ही महत्व है। जब उसके एक हाथ में विज्ञान और दूसरे में अध्यात्म होगा, तभी वह संतुलित जीवन व्यतीत कर सकेगा। शुरु से ही मनुष्य अपनी इच्छाओं का दास रहा है। आदिकाल में उसकी इच्छाएं और आवश्यकताएं सीमित थीं। लेकिन सभ्यता, संस्कृति और ज्ञान के विकास के साथ-साथ उसकी आवश्यकताएं बढ़ती गईं। इससे संसार में उपयोगितावाद, उपभोक्तावाद और भौतिकवाद का जन्म हुआ। भौतिकवाद जीवन की ऐसी पद्धति है जो सुख-सुविधाओं, भोग-विलास और आधुनिक संसाधनों से परिपूर्ण होती है। यूरोपीय देशों में विज्ञान का अधिक विकास हुआ है।

इन लोगों ने अपने जीवन को भौतिकवादी बना लिया। उनका जीवन उन्हीं सुख-सुविधाओं पर आधारित है। बहुत अधिक भौतिक साधनों के संचय की इस भूख के चलते मनुष्य जल्दी ही ईमानदारी, नीति, न्याय और धर्म की सीमा लांघकर अनुचित और असत्य की राह पकड़ लेता है। तेज गति से चलता हुआ वह आत्मा-परमात्मा से इतनी दूरी बना लेता है कि उसकी आवाज भी सुनाई नहीं देती। ईर्ष्या, छल-कपट, असत्य और अनीति का मजबूत आवरण उसे मार्ग से भटका देता है।अध्यात्म स्वयं को सुधारने, जानने और संवारने का मार्ग है। यह स्वयं का अध्ययन है और भाव संवेदनाओं का जागरण है, आत्म तत्व का बोध है, धर्म का मर्म है और स्व का ध्यान है।

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