33. प्रभु महावीर की अंतिम देशना के रूप में प्रसिद्ध श्रीमद् उत्तराध्ययन सूत्र अध्यात्म जगत का एनसाइक्लोपीडिया है। धर्म एवं अध्यात्म से संबंधित हर विषय का इस आगम ग्रंथ में समावेश है। जब-जब इस ग्रंथ- शास्त्र का अध्ययन करेंगे तब तब हर बार अध्यात्म के नवीन रहस्य आपके समक्ष प्रगट होंगे। यह विचार ओजस्वी प्रवचनकार डॉ. वरुण मुनि ने जैन भवन, साहुकारपेट में चल रही श्रीमद् उत्तराध्ययन जी श्रुतदेव आराधना में उपस्थित श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। सर्वप्रथम रुपेश मुनि ने शास्त्र के मूल पाठ का एवं भावार्थ का वांचन किया।
तत्पश्चात गुरुदेव ने कहा मृगापुत्रीय अध्ययन में वर्णन आता है कि- जब राज कुमार ने नगर के चौराहे पर जाते हुए एक मुनि को देखा तो सहसा उनके अवचेतन में एक चित्र उभरा कि- इन्हें मैंने कहीं देखा है। परंतु कब, कहां ? इस विषय पर चिंतन करते-करते उन्हें जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया कि- पूर्व जन्मों में वे स्वयं ऐसे सन्त बने थे। उन्होंने भी साधना की थी। परंतु वह साधना उस जन्म में अधूरी रह गई थी। अत: अब पुन: मनुष्य का जन्म मिला है तो उसे पूर्ण कर लेना चाहिए। माता पिता से उन्होंने जब आज्ञा मांगी सन्यास जीवन ग्रहण करने की तो वे एकदम आश्चर्य में पड़ गए। कहने लगे- तुम महलों में पले बढ़े एक राज कुमार हो राग-रंग, संगीत-नृत्य,, ऐशो-आराम में जीने वाले सुकुमार के लिए साधु बन- कर दर-दर भटकना, सर्दी गर्मी, भूख-प्यास ये सब सहन करना बहुत कठिन होगा।
तब मृगापुत्र ने बताया माता-पिता मेरा ये आत्मा अनेक बार स्वर्गलोक में देवताओं के सुख भोग चुका है। अनंत बार मेरी आत्मा ने नरकों में जन्म लेकर नाना प्रकार के भयंकर दु:खों का वेदन किया है जिसके सामने साधु जीवन के कष्ट तो कुछ भी नहीं। अत: आप मुझे आज्ञा प्रदान करें ताकि मैं साधूना पथ पर अग्रसर होकर अपने शेष कर्मों का क्षय कर सदा सदा के लिए जन्म-मरण के बंधन से छूट जाऊं। आखिर माता-पिता को उन्हें अनुमति देनी पड़ी। मृगापुत्र ने साधु बनकर साधना की व अपनी आत्मा का कल्याण किया। उनके जीवन का यह प्रसंग हम सभी को आत्म कल्याण के लिए प्रेरणा प्रदान करता है।