माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में ठाणं सूत्र के छठे स्थान के पन्द्रहवें सूत्र का विवेचन करते हुए धर्मसभा में आचार्य श्री महाश्रमण ने कहा कि संवर छ: प्रकार का प्रज्ञप्त हैं| अध्यात्म की साधना में दो आयाम हैं- संवर और निर्जरा| संवर वह तत्व है, जो नये सिरे से कर्मों के आगमन को रोकता हैं| निर्जरा वह तत्व है, जो पहले से आये हुए कर्म हैं, उनको बाहर निकालता हैं, तोड़ता हैं, क्षीण करता है, नष्ट करता हैं|
जैसे एक हॉल हैं, सभागार हैं, कमरा है, उसकी सफाई के लिए एक बार दरवाजा बन्द करके अन्दर के कचरे को इकठ्ठा करके बाहर निकाल कर सफाई करते हैं, यानि नये सिरे से बाहर से रजे आये नही, भीतर की है, उनको बाहर निकाल दिया| तो भले थोड़े काल के लिए, संवर भी हुआ और निर्जरा भी हुई|
त्याग करने से व्रत संवर होता निष्पन्न
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि हमारी आत्मा में जो कर्म है, अब नये सिरे से कर्मों का बंधन न हो, उसके लिए संवर की साधना आवश्यक हैं| संवर में व्रत संवर में हिंसा, झूठ, चोरी नहीं करने इत्यादि का त्याग किया जाता हैं| साधु सर्व सावध योग का जीवन भर के लिए तीन करण, तीन योग से त्याग करते हैं| यह त्याग करने से व्रत संवर निष्पन्न होता हैं| तपस्या से कर्मों की निर्जरा होती हैं, वह निर्जरा तत्व होता हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि पच्चीस बोल के चौदहवें बोल में संवर के बीस भेद बताये गये हैं और संक्षेप में संवर के पांच भेद होते हैं – सम्यक्त्व संवर, व्रत संवर, अप्रमाद संवर, अकषाय संवर और अयोग संवर| ठाणं के छठे स्थान में छ: – छ: बातों के आधार पर इन बीस संवरों में से छ: को लिया गया हैं| इन्द्रियों के संवर के अनुसार श्रोत्रेन्द्रिय हम कान से सुने जाने वाले शब्दों में राग द्वेष नहीं करना| इसी प्रकार चक्षुन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय का संवर होना चाहिए|
इन्द्रियों का करे संयम
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि हमारी यह पांच इन्द्रियां और छठा मन (नोइन्द्रिय)| मन का भी अशुभ योग के साथ चिन्तन, विचार न हो, उसका परित्याग करे| इन्द्रियों का संवर कर लेना, बहुत ऊँची साधना होती हैं| धर्म ग्रन्थों में कहीं – कहीं इन्द्रियों के संयम के लिए कछुए का उदाहरण दिया गया हैं| तो हम भी साधना में कछुए की तरह अपनी इन्द्रियों को आलिन, प्रलिन, गुप्त कर लेनी चाहिए|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हर जगह जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए| सामान्यतया खाने में, अनपेक्षित शौच क्रिया में, बोलने में, साधु को सामान्यतया चलने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए| आचार्य श्री ने कछुए की घटना के आधार पर प्रेरणा देते हुए कहा कि आदमी एक प्रकार से कछुआ है, वह अगर अपने इन्द्रियों का संयम रखता है, तो पाप रूपी शृगाल आक्रमण नहीं कर सकता|
आदमी रूपी कछुआ अवयवों को, इन्द्रियों का असंयम करता है, तो पाप रूपी शृगाल पास में ही खड़ा हैं, वो तत्काल आता है, आत्मा पर आक्रमण करता है, पाप का बंध हो जाता हैं| पाप रूपी शृगाल से बचने के लिए, आदमी रूपी कछुए को, अपनी इन्द्रियों का संयम रखना चाहिए| यानि राग द्वेष से बचना चाहिए, अनावश्यक इन्द्रियों का व्यापार भी, प्रवृत्ति भी, नहीं करनी चाहिए|
आँखों का करे सदुपयोग
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि आँख हमारे पास हैं, आँख से दिखता है तो आदमी काम कर लेता हैं| आँख का हम संयम रखने का प्रयास करें| क्या देख रहे हैं? अनपेक्षित चीजों को, रूपों को, आसक्ति से देखते हैं, तो आँख का, चक्षु का असंयम हो जाता हैं| आँख का हम बढ़िया उपयोग करे| धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने में आँख का उपयोग करें| अच्छी चीज लिखने में करे, चारित्र आत्माओं के दर्शन सेवा में करे या अच्छे कार्यों में आँख का उपयोग करें| यानि आँखों का दुरुपयोग नहीं अपितु सदुपयोग करना चाहिए|
आँख मुदं कर ध्यान, जप करने से आँख का ज्यादा संयम हो सकता हैं| चलते हुए अनावश्यक इधर-उधर देख कर चलने से मन का भी व्यापार चलेगा, भाव:क्रिया भी ठीक तरह से नहीं हो पायेगी| इससे दो नुकसान हो सकते हैं, सामने से वाहन आ रहे हैं, ध्यान नहीं देने से आत्मविराधना, शरीर की हानि की बात हो सकती हैं, दूसरी हानि इधर उधर देख कर चलने से पाँव के नीचे, अधोभाग जीव आ गया, तो जीवों की हिंसा हो जायेगी, तो संयम की विराधना हो जायेगी|
आलोक देने वाली होती हैं आँख
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि आँख एक ऐसी चीज हैं, जिससे कितना हमें ज्ञान होता हैं| कई कई मनुष्यों को तो यह आलोक देने वाली आँख ही प्राप्त नहीं है, जन्म से ही ऐसे ही हैं, आँखों में रौशनी नहीं है, दिखता नहीं हैं| जिनके पास आँख हैं, आँखें स्वस्थ हैं, तो कितना बड़ा उनका भाग्य हैं, साथ में क्षयोपक्षम है, कि आँखों की इन्द्रिय उनकी ठीक हैं| तो हमारी इन्द्रिय स्वस्थ हैं, इसको भावात्मक दृष्टि से भी स्वस्थ रखने का हम प्रयास करें, इसके उपयोग में हमारा संयम भी रहे|
नेत्रदान देकर, दूसरों को सनेत्र बनाते
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि आज कितने लोग होंगे, जिनके पास आँखें नहीं है, तो आज लोग नेत्रदान देकर के, दूसरों को सनेत्र बनाने का प्रयास करते हैं| उनकी भावना रहती है कि दूसरों के मेरे नेत्र काम आ जाए! तो बाह्य आँख का भी महत्व है, तीर्थंकर भगवान तो “चक्खुदयाणं” अन्त:चक्षु देने वाले होते हैं, हमारी अन्त:चक्षु भी उद्घाटित हो जाए या है तो और आगे बढ़े, और हम वितरागता की दिशा में आगे बढ़े|
श्री मांगीलाल नाहर ने आठ की तपस्या का प्रत्याख्यान आचार्य श्री के श्रीमुख से किया|
शहरी निकाय एवं ग्रामीण विकास मंत्री ने किये दर्शन, पाया पाथेय
तमिलनाडु सरकार के शहरी निकाय एवं ग्रामीण विकास मंत्री श्री एस पी वेलूमणी ने पूज्य गुरुदेव के दर्शन किये। पूज्य गुरूदेव ने जीवन में नैतिकता, ईमानदारी का हो विकास, की दी प्रेरणा| चातुर्मास व्यवस्था समिति चेन्नै के अध्यक्ष श्री धरमचंद लुंकड़ ने मंत्री का अंगवस्त्र एवं मोमेन्टों द्वारा स्वागत किया| इस अवसर पर 155वें मर्यादा महोत्सव व्यवस्था समिति कोयम्बटूर के अध्यक्ष श्री विनोद लूणिया भी उपस्थित थे|
*✍ प्रचार प्रसार विभाग*
*आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति, चेन्नई*
स्वरूप चन्द दाँती
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति