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अधर्म से अपनी आत्मा का बचाव करे मानव: महातपस्वी महाश्रमण

अधर्म से अपनी आत्मा का बचाव करे मानव: महातपस्वी महाश्रमण
कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): जैसे बेंगलुरु की धरती को गर्मी से बचाने के लिए बादल नियमित रूप से बरसते हैं, उसी प्रकार बेंगलुरुवासियों के धार्मिक क्षुधा को तृप्ति प्रदान करने के लिए नियमित रूप से जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान अनुशास्ता, अहिंसा यात्रा प्रणेता आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी अमृतवाणी की वर्षा कर रहे हैं।
वर्तमान में आचार्यश्री तेरापंथ धर्मसंघ के दसमाधिशास्ता, प्रेक्षा प्रणेता आचार्यश्री महाप्रज्ञजी द्वारा संस्कृत भाषा में रचित ग्रन्थ ‘सम्बोधि’ के माध्यम से श्रद्धालुओं को सत्पथ पर चलने का पावन सम्बोध प्रदान कर रहे हैं।
शुक्रवार को आचार्यश्री ने ‘महाश्रमण समवसरण’ मंे उपस्थित श्रद्धालुओं को ‘सम्बोधि’ के माध्यम से पावन पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के जीवन में धर्म का परम महत्त्व है, इसके बावजूद भी आदमी से प्रतिदिन कोई न कोई अधर्म की प्रवृत्ति हो ही जाती है।
मानों धर्म और अधर्म का खाता साथ-साथ चलता रहता है। ‘सम्बोधि’ में बताया गया कि धर्म का कार्य है कर्मों को भीतर आने से रोकना और पूर्वार्जित कर्मों का क्षरण करना तथा अधर्म का कार्य है पापों का भीतर में संचरण करना। जितना भी संभव हो सके आदमी को अधर्म अर्थात् पाप कर्मों से अपनी आत्मा का बचाव करने का प्रयास करना चाहिए और धर्मार्जन का प्रयास करना चाहिए।
आदमी झूठ बोलता है, वह पाप हो गया। अब एक आदमी एक दिन में कितना झूठ बोलता है। आदमी को संकल्प यह करना चाहिए कि सामने पर्युषण आ रहा है। उस दौरान मैं झूठ न बोलूं। इसी प्रकार पर्युषण के दौरान किसी भी प्रकार की चोरी से बचने का प्रयास होना चाहिए। चाहे वह व्यापारिक रूप से हो, किसी चीज को प्राप्त करने की इच्छा से हो। इस दौरान मैं किसी पर गुस्सा भी नहीं करूंगा।
इस प्रकार आदमी एक लक्ष्य निर्धारण करे और उस अनुरुप आचरण करे तो वह सलक्ष्य रूप में नियमित होने वाले पापों से अपनी आत्मा को बचा सकता है। आदमी मानों कहीं जा रहा है, यदि वह सावधानी से चलते हुए यह ध्यान दे कि उससे चलने के दौरान किसी जीव की हिंसा न होने पाए, वह हरियाली से बचकर चले तो वह कितने ही अनावश्यक पापों से अपनी आत्मा का बचाव कर सकता है।
शुभ योग में रहते हुए जप, स्वाध्याय, ध्यान, साधना के माध्यम से आदमी को धर्म का अर्जन करने का प्रयास करना चाहिए। धर्म के क्षेत्र में भावना का भी बड़ा महत्त्व होता है। आदमी की जैसी भावना होती है, वैसी उसकी सिद्धि होती है।
आदमी के मन में भी पाप के भाव न आएं, ऐसा प्रयास करना चाहिए। एक डाॅक्टर भी आदमी का पेट खोल देता है और एक डाकू भी आदमी का पेट खोल देता है, लेकिन डाॅक्टर आदमी की बीमारी को दूर करने के लिए ऐसा करता है और डाकू उसे मारने की भावना से ऐसा करता है।
आदमी की काय और वाणी की प्रवृत्ति के पीछे उसकी भावना क्या है, यह महत्त्वपूर्ण है। आदमी का लक्ष्य भी शुद्ध हो, तरीका शुद्ध हो और भावना भी शुद्ध हो तो धर्म का अर्जन हो सकता है। आदमी अपनी प्रतिदिन की क्रिया पर ध्यान दे तो कितने ही पापों से अपना बचाव कर सकता है।
स्नान आदि के दौरान कम पानी का प्रयोग करना भी पाप से बचाव का साधन बन सकता है। जैसे धन के अर्जन के लिए आदमी अनेक उपाय करता है, उसी प्रकार धर्म के अर्जन के लिए आदमी को अनेक उपाय करने का प्रयास करना चाहिए और अपनी आत्मा के कल्याण का प्रयास करना चाहिए। आचार्यश्री ने स्वरचित कृति ‘महात्मा महाप्रज्ञ’ का सरसशैली में वाचन व व्याख्या कर लोगों को प्रेरणा प्रदान की।
आचार्यश्री की पावन सन्निधि में पहुंचे अखिल भारतीय संस्कृत भारती के संगठनमंत्री श्री दिनेश कामट ने आचार्यश्री के मंगल प्रवचन के पश्चात् अपनी भावनाओं को संस्कृत भाषा में अभिव्यक्त करते हुए कहा कि आज संस्कृत भाषा का लोप हो रहा है। आचार्यश्री का आशीर्वाद प्राप्त हो तो संस्कृत भाषा का और अधिक विकास हो सकता है।
वहीं कवि सुखदेव सिंह ने आचार्यश्री के समक्ष अपनी भावनाओं को कविता के माध्यम से प्रस्तुत करते हुए आचार्यश्री की चरणों की वन्दना की और पावन आशीर्वाद प्राप्त किया। श्रीमती मनोहरी बाई बाफना ने आचार्यश्री से 41 दिन की तथा श्रीमती उषा तातेड़ ने आचार्यश्री से 28 दिन की तपस्या का प्रत्याख्यान किया।
                  🙏🏻संप्रसारक🙏🏻
            *सूचना एवं प्रसारण विभाग*
         *जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा*

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