तेरापंथ धर्मसंघ के एकादशम अधिशास्ता-शांतिदूत-अहिंसा यात्रा के प्रणेता-महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी ने धर्मसभा को अपने मंगल प्रवचन में फरमाते हुए कहा कि आदमी को मन में अभय और समता का भाव रहे। गुस्सा एक प्रकार की कमजोरी है जो व्यक्ति को हिंसा की ओर लेकर जाती है।
विपरीत परिस्थिति में भी अगर समता का भाव रहे तो इससे सुख भी मिलता है और अच्छा चिंतन आता है। अच्छे चिंतन से व्यक्ति के जीवन में आलोक आ सकता है। भय और क्रोध शत्रु के समान होते हैं इससे पार पा लिया तो सम्यक विकास हो सकता है। भारत में संत शक्ति और ग्रंथ शक्ति दोनों उपलब्ध है। इससे जीवन के सम्यक विकास की खुराक प्राप्त होती है।
आचार्य प्रवर ने संघ सरसंघचालक श्री मोहन भागवत की उपस्थिति में राजनीति के विषय में प्रेरणा देते हुए कहा कि राजनीति में भ्रष्टाचार शब्द खत्म हो जाए बस केवल सदाचार रहे तो इससे देश का कल्याण हो सकता है। जीवन में आर्थिक और बौद्धिक विकास के साथ नैतिकता और आध्यात्मिकता का विकास हो तो देश के विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
आचार्यवर ने फरमाते हुए कहा कि प्रमादी व्यक्ति को भय रहता है और अप्रमादी व्यक्ति को भय नहीं रहता है। आत्मा ही हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है। जैसे भाव होंगे वैसा ही उनका जीवन परिलक्षित होगा। जिस प्रकार पानी के कुएं में बाल्टी डालने से उससे पानी ही निकलेगा उसी प्रकार व्यक्ति के मन में हिंसा क्रोध के भाव है तो उससे लड़ाई और हिंसक प्रवृत्ति ही निकलेगी।
संघ सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने अपने वक्तव्य में कहा कि जहां संतों की कृपा दृष्टि होती है वहां सब कुछ प्राप्त हो जाता है। संत प्रेम और करुणा बरसाते हैं तो वहां पर बार-बार जाने का मन होता है। संतो के पास जाने से बौद्धिक उन्नति से प्राप्त होने वाले सुख से ऊपर आत्मिक सुख की प्राप्ति होती है। संतों का जीवन धर्म ग्रंथ जैसा होता है और उससे हम सभी को सदाचार की प्रेरणा मिलती है। व्यक्ति को जब भी मौका मिले तो संतो के दर्शन का लाभ लेते रहना चाहिए।
उन्होंने तेरापंथ और संघ के रिश्ते के बारे में बात करते हुए कहा कि यह रिश्ता द्वितीय सरसंघचालक से अब तक अविरल चलता रहा है और प्रतिवर्ष आचार्य श्री महाश्रमण जी के सानिध्य में आकर स्वयं को रिचार्ज करते हैं। और इससे संघत्व तो बना रहता है और संतों के आचार से हमें भी पवित्राचारी बनने की प्रेरणा मिलती है।
साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभाजी ने अपने वक्तव्य में कहा कि गुरु वही होते हैं जो अपने आश्रय में आने वालों की समस्या का समाधान करते हैं और उन्हें सही रास्ता दिखाते हैं। आचार्य महाश्रमण जी ऐसे महान गुरु है जिनकी सन्निधि में हर व्यक्ति आता है। गुरु में एक प्रकार का गुरुत्वाकर्षण होता है क्योंकि गुरु जीवन को रूपांतरण करते हैं व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं।
साध्वीवर्या सम्बद्धयशा जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि हम अपने जीवन में पक्षपातरहित दृष्टिकोण का विकास करें और सम्यक दृष्टि की आराधना करें।
प्रेक्षा इंटरनेशनल द्वारा स्पेनिश भाषा में “मैं कुछ होना चाहता हूं” और “ध्यान क्यों?” पुस्तक का लोकार्पण श्री रमेश बोल्या एवं लुईस कार्लोस ने किया।
आचार्य महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति की तरफ से कृतज्ञता ज्ञापन के क्रम में श्रीमती कांता लोढ़ा, श्री धर्मीचंद धोका, विनोद सेठिया, श्रीमती बिन्दु रायसोनी ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। देवीलाल पितलिया एवं कुणाल गादिया ने गीतिका की प्रस्तुति दी। छह वर्षीय बालक कृयांश लोढ़ा ने संस्कृत शलोको का पाठ किया